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________________ १२ । सुरक्षित रहेगा सौंदयमला आलोचना के आधार पर नहीं किन्तु जीवनीमूल्क और ऐतिहासिक समीक्षा का दृष्टि न । निस्सन्देह द्विवेदी जी की कविता में वह काव्यमौन्दर्य नहीं हैं जिसके बल पर वे जयदेव पंडितराज जगन्नाथ या मेंथिली शरण गुप्त की भाति गर्व करते। उनकी कविता में वह विशेपता भी नहीं है जो उन्हें कालिदाम, तुलसी या हरिऔध की भाति विनम्र सिद्ध बर सके | उन्हें अपनी कविता के मफल होने की आशा भी नहीं थी, अन्यथा वे भी भवभूति आदि की भाति अपने स-देहसकुल चित्त को किसी न किसी प्रकार अवश्य समझा लेते। क्षेमेन्द्र ने काव्यशास्त्र का अध्ययन करने वाले शिष्यों के जो तीन प्रकार 'कविकंठाभरा मे बताए हैं उसके अनुसार द्विवेदी जी अल्पप्रयत्नसाध्य और कच्छप्रय साव्य की मिश्रकोटि मे रखे जा सकते है । उन्होने अपनी कविताओं की रचना कालिदास आदि की भॉति यशप्राप्ति की लालसा से नहीं की !४ उनमे धावक अादि प्राचीन एवं रेडियो और सिनेमा ६ यदि हरिस्मरणे सरसं मनो यदि विलासकथासु कुतूहलम् मधुरकोमलकान्तपदवलिं शणु तदा जयदेवसरस्वतीम् ।। जयदेव, 'गीनगोविन्द' । माधुर्यपरमसीमा सारस्वनजलधिमथनसम्भूता। पिवतामनल्पसुग्वदा वसुधायां मम सुधाकविता ॥ जगन्नाथ, 'भामिनीविलास' । ये प्रासाद रहे न रहें पर अमर तुम्हारा यह साकेत ! मैथिली शरण गुप्त, 'साकेत' । कर्म-विपाक कंस की मारी दीन देवकी सी चिरकाल । लो अबोध अन्त.पुरि मेरी अमर यही माई का लाल ॥ मैथिली शरण गुप्त, 'द्वापर । २. क क्व सूर्यप्रभवो वंशः क्व चाल्पविषया मतिः । तिनीषु दुस्तरं मोहादुडुपेनास्मि सागरम् ॥ रघुवंश'। कवि न होउ नहि चतुर कहाऊ । या-'कवित विवेक एक नहिं मोरे ।' 'रामचरितमानस'। ग. मेरी मतिबीन तो मधुर ध्वनि पैहै कहा, पुरी बीनवारी, जो न नेरी बीन बजिहै । - रसकलस' ये नाम केचिदिह न. प्रथयन्त्यवज्ञा, जानन्ति ते किमपि तान्प्रति नैष यन्नः । उत्पत्स्यतेऽस्ति मम कोऽपि समानधर्मा, कालो ह्ययं निरवधिविपुला च पृथिवी ॥ भवभूति, 'मालतीमाधव' । मन्द कवियश प्रार्थी गमिष्याम्यु रखुवश मानस भवन में ' जिसकी उतारे भारती
SR No.010414
Book TitleMahavira Prasad Dwivedi aur Unka Yuga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaybhanu Sinh
PublisherLakhnou Vishva Vidyalaya
Publication Year
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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