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________________ की छीछालेदर की थी, उसी द्विवदी जी ने नागरी प्रचारिणी सभा को अपनी समस्त साहित्यिक सम्पत्ति का मन्त्रा उत्तराधिकारी समझा, अपना गृहपुस्तकालय, 'सरस्वती' की स्वीकृत अस्वीकृत रचनाओ की हस्तलिखित मूल प्रतिया, समाचारपत्रों की साहित्यिक वादविवाद-सम्बन्धी कतरनें, पत्र यादि बहुत कुछ सामग्री सभा को दान करके अपना और सभा का गौरव बढाया । द्विवेदी जी और समा के सम्बन्ध का इतिहास वस्तुतः द्विवेदी जी और श्यामसुन्दरदास - दो साहित्यिक महारथियां-- के सम्बन्ध की कहानी है जिनके पारस्परिक प्रेमप्रदेश में ही नहीं संग्रामक्षेत्र में भी रस की धारा दृष्टिगत होती है। उनके संघर्ष की धारा सुन्दर प्रतीत होती हुई भी वास्तव में सुन्दर, पावन और कल्याणकारिणी है । उनके विवाद सामयिक थे, उनमे किसी भी प्रकार की नीचता या दुर्भाव नहीं था । इसके अकाट्य प्रमाण है--सभा द्वारा द्विवेदी जी का अभिनन्दन, सभा को दिया गया दिववेदी जी का दान और उससे भी महत्वपूर्ण है इन दोनों का पत्र व्यवहार | अभिनन्दनोत्सव में पठित आत्मनिवेदन को दिववेदी जी ने कई ग्वडी. मं विभाजित किया था । एक खंड का शीर्षक था 'मेरी रसीली पुस्तके' | उसमें उन्होंने अपनी दा प्रकाशित पुस्तकां - 'तम्मणोपदेश' और 'सोहागरात की चर्चा की थी । 'सोहागरात' के विषय में उन्होंने निवेदन किया था- 'ऐसी पुस्तक जिसके प्रत्येक पद मे रस की नदी नही तो बरसाती नाला ज़रूर बह रहा था । नाम भी मैने ऐसा चुना जैसा कि उस समय उस रस के अधिष्ठाता की मी न सूझा था । ... आजकल तो वह नाम वाजारू हो रहा है और अपने अलौकिक आकर्षण के कारण निर्धनों को धनी और धनियों को धनाधीश बना रहा है । अपने बूडे मुँह के भीतर धंसी हुई ज़बान से श्राप के सामने उस नाम का उल्लेख करने हुए मुझे बड़ी लज्जा मालूम होगी, पर पापों का प्रायश्चित्त करने के लिए आप पंचममाजरूपी परमेश्वर के सामने शुद्ध हृदय में उसका निर्देश करना ही पड़ेगा । अच्छा तो उसका नाम था या है -- 'सोहागगत' । १५ द्विवेदी जी की धर्मपत्नी ने उन पुस्तकों को अश्लील समझ कर छपने नहीं दिया । उनकी मृत्यु के उपरान्त भी उन्हें प्रकाशित करने में द्विवेदी जी ने अपना और साहित्य का कलंक समझा---'"मेरी पत्नी ने तो मुझे साहित्य के उस पंकपयोधि में डूबने से बचा लिया आप भी मेरे उस दुष्कृत्य को क्षमा कर दें, तो बडी कृपा हो ।” १ द्विवेदी जी के दान की पूर्ण सूची परिशिष्ट संख्या १ में दी गई है २ काशी नागरी प्रचारिणी सभा क कायालय में रचित पत्र स० ०१६ से १२४ तक
SR No.010414
Book TitleMahavira Prasad Dwivedi aur Unka Yuga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaybhanu Sinh
PublisherLakhnou Vishva Vidyalaya
Publication Year
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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