SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 66
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ । इनसी कुछ कविताए अपना शिक्षा सरान तथा 'श्राय भाषा पाठानली १ म पी ग्रामी क विना ही मकालन कर ला तब द्विवदा जो उनक वचक व्यवहार पर ऋतु हुए । अन्त म मित्रों की मित्रता के कारगा उन्हें जमा कर दिया । द्विवेदी जी कठोर थ कपटाचारी, कृत्रिम, दिखावटी और चाटुकार जनों के लिए। ब किसी भी अनुचित बात को मह नहीं सकते थे । मन्त्र तो यह है कि वे अपने ऊंचे आदर्श की ईक्ता में दूमगे का भी नापते थे। यह उनकी महत्ता थी जिसे हम सामारिक दृष्टि से निर्वलता कह सकत है। एक बार बनारसीदाम चतुर्वेदी ने विशाल भारत' में 'माकेत' की आलोचना की ! उनकी कुछ बातो म गुप्त जी महह्मन न हुए और १५ जनवरी, १६३२ ई० को उन्हे उत्तर दिया। उसी की प्रतिलिपि के साथ द्विवेदी जी को उन्होंने पत्र लिखा और उनकी मम्मति मॉगी । द्विवेदी जी ने अपनी राय देते हुए अपने अनन्य स्नेभाजन मैथिलीशरण गुप्त को लिग्ना--"तुलमी की कविता में आपको अपनी कविता की तुलना करना शोभा नहीं देता।" गृप्त जी तिलमिला उठे और २८ जनवरी को लिखा--"अाज पच्चीस वर्ष से ऊपर हुए, मैं श्राप की छत्रच्छाया में हूँ। यह बात नारी के कहने के लिए रहने दीजिये ।... मैंने अपनी ज्यान ममाधि में जैमा देखा वमा लिखा ।” पहली फरवरी को द्विवेदी जी ने उत्तर में लिखा 'श्रापने मुझम गय माँगी. मुझे जो कुछ उचित समझ पडा, लिग्य कर मैने श्राप की इच्छापूर्ति कर दी। इस पर आप अपनी २८ जनवरी की चिट्ठी में विवाद पर उतर श्राए-जो राय मेने दी उसका मवांश मे ग्लंडन कर डाला । इसकी क्या जरूरत थी ? अाप अपनी राय पर जमे रहने । ध्यान-ममाधि लगाकर पुस्तक लिवने वाला को मेरे और बनारमीदाम जैन मनुष्यों की राय की परवा ही क्या करनी चाहिए ? वे अपनी गद जाय, अाप अपनी । श्राप की राय ठीक, मेरी और बनारसीदाम की गन्नत मही–तुभ्यतु नवान् । '3 दयाशील द्विवेदी जी की उग्रता के मूल में किसी प्रकार की दुर्भावना नहीं होती थी। इमका अकाट्य प्रमाण यह है कि पवियों की क्षमायाचना नुनकर मच्च हृदय में, महर्ष और सन्न रहें नमामी कर देत धे । मैथिलीशरण गुप्तने -पर्यत पत्र का उत्तर दिया था निगाँव जामी
SR No.010414
Book TitleMahavira Prasad Dwivedi aur Unka Yuga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaybhanu Sinh
PublisherLakhnou Vishva Vidyalaya
Publication Year
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy