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________________ "} प्रकाशित कविता का इम्नाल त प्रतियां द्विवदा जी की गुस्ता का वहुत कुछ अनुमान करा देती है । माकारण कवियों की कविताओं में ही नहीं, महाकवियों की कविताओं में भी शब्दों का व्यतिक्रम हुआ है जिसके प्रवाह में शिविन्दता और सौन्दर्य में कमी आ गई है। हरि जी की कविता का एक उदाहरण निम्नति है शोधित पेड हर सब हो जाते है नये नये पत्ते लाते है वह कुछ ऐसे लद जाते हैं दिसा मय महकने लगती हैं। " बहुत भले वह दिखलाते है after बहने लगती है। दिशा संहकने म लगती है। उपर्युक्त उद्धरण में कुछ बातें विशेष अन्य हैं । हरे 'पेड़' का विशेषण न होकर दो जात है' का पूरक हैं अतएव उसका 'पेड' शब्द के बादशाना ही अधिक शोभाकारक होता । नीमय यक्ति की लय में बोथी पंक्तिकी लय मिलती ही नहीं 'बहुत भन्ते' का पूर्ववर्ती होकर गुरु 'जो' ने उस पंक्ति के प्रभाव में एक बाब सा डाल दिया है। छठी पंक्ति की लय को अविरल रखने के लिए 'महकने' की विभाजित करना पड़ता है, 'महक', 'सब' के साथ और 'ने' लगती के साथ चला जाता है। इस प्रकार का विच्छेद मंगत नहीं जंचता । द्विवेदी जी के संशोधन ने इन सब दोषों को दूर कर दिया है। मूल हरे पेड़ सब हो जाते हैं नये नये पत्ते लाते हैं वह कुछ ऐसे लद जाते है जा बहुत भले दिखलाते है मी हवा चलने लगती है गद्य और पद्य की भाषा एक करने पर भी द्विवेदी जी ने विशेष जोर दिया। उनके पहले से भी बडी बोली में कविता करने का प्रयास हो रहा था । द्विवेदी जी का गौरव इस बात में है कि उनके आदर्श उपदेश और सुधार के परिणाम स्वरूप ही हिन्दी-संसार ने गद्य को भाषा को ही ना की माया स्वीकार कर लिया । १६०६ ई० में द्विवेदी जी ने 'कविताकलाप' संग्रह प्रकाशित किया जिसमें द्विवेदी जी, राय देवीप्रसाद, कामताप्रसाद गुरु, नाथूराम १ 'कोयल', 'सरस्वती, हस्तलिखित प्रतियां १९०६ ०. कलाभवन, काशी नागरी प्रचारिणी सभा | २. "गद्य और पत्र की भाषा पृथक् पृथक् न होनी चाहिए। यह निश्चित है कि किसी समय बोलचाल की हिन्दी भाषा ब्रजभाषा की कविता के स्थान को अवश्य छीन कगी इसलिए कवियों को चाहिए कि वे क्रम क्रम से गद्य की भाषा में कविता करना S { READ ON T
SR No.010414
Book TitleMahavira Prasad Dwivedi aur Unka Yuga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaybhanu Sinh
PublisherLakhnou Vishva Vidyalaya
Publication Year
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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