SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 236
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८७ । द्विवर नी ने उ के ३ र + प्रयाग का आदेश दिय 'लाला गगवाट न 7 अपने बीरपंचरत्नम, अयोन्यामिह उपा चाय ने नपन चौपढ़ो और छादी में तथा गन्य कवियों ने भी अपनी रचनाओं में उर्दू बों का प्रयोग किया ! द्विवेदी जी ने कविया न यह भी अाग्रह किया कि वे अपने मिद्ध छन्दों का ही व्यवहार करें । मेथिलीशरण गुप्त ने अपने मवे हुए छन्द, हरिगीतिका में ही 'भारत-भारती' और 'जयद्रथवध' लिम्वा । मापानशरणमिह ने धनाबरी और सवैया में ही अपनी अधिकाश रचनाएं की। जगन्नाथ दाम ने गेला और बनानी का ही अधिक प्रयोग किया। अनुक्रान्त कविता को भी द्विवेदी जी ने विशेष प्रोन्माहन दिया ।३ कविता का यह रूप भी द्विवेदी-युग की एक महत्वपूर्ण विशेषता है । यद्यपि मबलसिह चौहान, सरजूप्रमाद मिश्र, श्रीवर पाठक, देवीप्रसाद पूर्ण श्रादि काँचै तुकान्तहीन कविता कर चुके थे परन्तु संस्कृत वृत्ता और अतुकान्त कविता को अंन्यानुप्रामयुक्त कविता के समान ही प्रतिष्ठित करने का श्रेय द्विवेदी जी और उनके युग को ही है । द्विवेदी जी की 'हे अक्ति' और श्रीधर पाठक का 'वर्षा-वर्णन' १६०१ ई० म तथा कन्हैयालाल पोहार का 'गोपी गीत १९८२ ई० की मरस्वती में प्रकाशित हो चुके थे। अनुकान्त कविता का वास्तविक प्रबाह १६०३ ई० मे चला ! कन्हैया नाल पोहार को अन्योक्ति दशक' और अनन्तगम पाडेय के कपटी मुनि नाटक' में वणिक और मात्रिक अत्यानुप्रामहीन छन्दों के दर्शन हुए। पूर्ण जी के 'भानुकुमार नाटक' (१६०४ ई.) में नी यत्र नत्र अतुकान्त पदों का प्रयोग हुया है । 'मरस्वती' ने इस प्रवाह को आगे बढाया । १६०४ ई० में 'मृत्युजय' (पूर्ण), 'तुम बमन्त सदेव बने रहो (जन्नाप्रसाद पाण्डेय, और 'शान्तिमती शव्या' ( सत्यशरा रतूडी), ७५ ई. म 'शिशिर पथिक' ( रामचन्द्र शुक्ल), 'प्रभात-प्रमा' ( सत्यशरण रतूड़ी), 'भारवि का शरदवर्णन ( श्रीधर पाठक) अादि कविताएं प्रकाशित हुई और यह क्रम चलता रहा । १६ ई. में हरिऔध जी का दाव्यापवन' कविता-संग्रह प्रकाशित हुआ निमम उन्हान १. अाजकल के बोल चाल की हिन्दी की कविता उर्दू के विशेष प्रकार छन्दों में अधिक म्वुलना है, अतः ऐसी करिना लिखने में बदनु बज छन्द प्रयुक्त होना चाहिए। ___-~-रमजरंजन', पृ. ३ । २, "कुछ कवियों को एक ही प्रकार का छन्द मध जाना है, उस ही वे अच्छा लिख सकते है उनको दूसरे छन्द लिखने का प्रयत्न भी न करना चाहिए। 'रमशरजन' पृ. ४ ॥ ३ पाठान्त में मनुप्रामहीम इम्प भी हिन्दी में लिखे जाने चाहिए । रसशरजन पृ०४
SR No.010414
Book TitleMahavira Prasad Dwivedi aur Unka Yuga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaybhanu Sinh
PublisherLakhnou Vishva Vidyalaya
Publication Year
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy