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________________ । २८३ } विषय और शैली की दृष्टि मे द्विवदोयुग के गद्यकाव्यो के दो प्रकार हैं... देश प्रेम की अभिव्यक्ति और लौकिक या अलौकिक प्रेमपात्र के प्रति अात्मनिवेदन । यह भी कहा जामकता है कि उनका मुख्य विषय प्रेम है चाहे वह लौकिक हो, अलौकिक हो या देश के प्रति हो । देशप्रेम को लेकर लिखी गई कविताएं अपवादस्वरूप हैं । द्विवेदी-युग के अन्तिम वर्षों में सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा-अान्दोलन प्रबल हो रहा था और उसका प्रभाव हिन्दी साहित्य पर भी अनिवार्य रूप मे पडा । जो देशप्रेम प्रार्थना और नम्र निवेदन मे प्रारम्भ हुअा था उसने उग्र रूप धारण किया। कवियों ने इस बात का अनुभव किया कि बिना बलिदान और रक्तपात के स्वतत्रता की प्राप्ति नहीं हो सकती । गय कृष्णदास के 'समुचित कर' और 'चेतावनी' गद्यगीत इसी भाव के द्योतक हैं। उसी वर्ष कुवर राममिह ने एक गद्य काव्य लिखा 'स्वतन्त्रता का मूल्य' जिसमे उन्होंने भारतीय नारियों को देश को स्वतन्त्रता के लिए प्रात्मत्याग और बलिदान करने को उत्तेजित किया । उम युग के अधिकाश गद्यकाव्य किसी प्रेमपान के प्रति प्रेमी हृदय की वेदना के ही शब्दचित्र हैं। इस प्रम का आलम्बन कहीं शुद्ध लौकिक है. और कहीं कहीं यह प्रेम 1 "ऋषियो । यदि तुम्हें भगवान रामचन्द्र की परमाशक्ति सीता के जन्म की आकांक्षा हो सो सुम्हें घडे भर खून का कर देना ही होगा। उसके बिना सीता का शरीर कैसे बनेगा ? और बिना सीता का आविर्भाव हुए रामचन्द्र अपना अवतार कैसे सार्थक कर सकेगे ? अत: ऋषियो उठो, अविलंब अपना रक्त प्रदान करो ।” -प्रभा, वर्ष ३, खंड १, पृ० ४०१ ! २. “हे देवियो ! यदि तुम्हें स्वतंत्रता का सुख चाहिए तो अपने पतियों सहित कारागार के कष्ठ उठाकर देवकी की तरह अपनी सात मन्तानों का बलिदान करो।" -प्रभा. भाग ३, खंड २, पृ. २०२। ३. "पाटल ! मैं ने तुमको इतने प्रेम से अपनाया । तुम्हे तुम्हारे स्वजनों से बिलगाकर छाती से लगा लिया तुम्हारे काटों की कुछ परवाह न की, क्योकि तुम्हारी चाह थी। __कहा मेरा मन इमी चिन्ता में चूर रहता था कि तुम्हारी पंखुडिया दब न जावे । सारे संसार से समस्त चित्तवृत्तिया खिचकर एक तुम्हीं से समाधिस्य हो रही थीं। कहा आज वही, मैं, तुम्हे किस निर्दयता, उदासीनता और घृणा मे भूमि पर फेक रहा हूँ। क्योंकि तुम्हारे रूप, रग, सुकुमारता और सौरभ सब देखते देग्वते नष्ट हो गए हैं। कहा तो मैं तुम्हें हृदय का फूल बनाकर अभिमानित होता था, कहा आज तुम्हे पददलित करने में डरता हूँ कि कहीं काटे न चुभ जाय ।। ___अरे, यह-प्रेम कैसा ? यह तो स्वार्थ है क्या इसी का नाम प्रेम है ? हे नाथ, मुझे ऐसा प्रेम नहीं चाहिए ! मुझे तो वह प्रेम प्रदान करो जो मुझे भेदबुद्धिरहित पागल बना -साधना, पृ०६७
SR No.010414
Book TitleMahavira Prasad Dwivedi aur Unka Yuga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaybhanu Sinh
PublisherLakhnou Vishva Vidyalaya
Publication Year
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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