SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 166
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६३ । न हाना ।' उस समय हिन्दी पत्रिकाए नियत समय पर न निकलती थीं , वे अपने विलम्ब का कारण बतलाती--सम्पादकजी बीमार हो गये, उनकी लेखनी टूट गई, मशीन बिगड़ गई, प्रकाशक महाशय के सम्बन्धी का स्वर्गवास हो गया, इत्यादि । द्विवेदी जी इन विडम्बनापूर्ण घोषणानो के कायल न थे। उनकी निश्चित धारणा थी कि पत्रिका का बिलम्बित प्रकाशन ग्राहको के प्रति अन्याय और सम्पादकके चरित्रका घोर पतन है। मशीन फेल होती है, हुआ करे; सम्पादक बीमार है, पड़ा रहे; कलम टूट गई है, चिन्ता नहीं, सम्बन्धी मर रहे हैं, मरा करें; सम्पादक को अपना कर्तव्यपालन करना ही होगा, पत्रिका नियत समय पर ग्राहक के पास भेजनी ही होगी । सम्पादक के इस कठिन उत्तरदायित्व का निर्वाह उन्होंने जी जान होमकर क्रिया । चाहे पूरा का पूरा अंक उन्हेही क्यो न लिखना पड़ा हो, उन्होने पत्रिका समय पर ही भेजी। केवल एक बार, उनके सम्पादन-काल के प्रारम्भ में, १६०३ ई० की दूमरी और तीमरी सख्याएँ एक साथ निकली। इस अपराध के लिए नवागत सम्पादक द्विवेदी जी सर्वथा क्षम्य है। इस दोष की श्रावृत्ति कभी नहीं हुई । कम से कम छ. महीने की सामग्री उन्होने अपने पास सदैव प्रस्तुत रखी। जब कभी वे बीमार हुए छुट्टी ली, या जब अन्त में अवकाश ग्रहण किया तब अपने उत्तराधिकारी को कई महीने की सामग्री देकर गए जिसमे 'मरस्वती' के प्रकाशन मे विलम्ब, अतएव ग्राहकों को अमुविधा और कष्ट न हो। उनके लग. भग सत्रह वपोंके दीर्घ सम्पादन-काल में एक बाग्भी 'सरस्वती' का प्रकाशन नहीं रुका। उसी समय के उपार्जित और स्त्रलिग्वित कुछ लेख द्विवेदी जी के संग्रह मे अभिनन्दन के समय भी उपस्थित थे। वे आज भी काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा के कलाभवन और दौलतपुर में रक्षित हैं। उन्होंने 'सरस्वती' के उद्देश्यों की दृढ़ता के माथ रक्षा की । अपने कारण स्वामियों को कभी भी उलझन में न डाला। उनकी 'सरस्वती' मेवा क्रमशः फूलती फलती गई । उनकी वर्तव्यनिष्ठा और न्यायपरायणता के कारण प्रकाशकों ने उन्हे सर्वदा अपना विश्वासपात्र माना । द्विवेदी जी के लेखो तथा कथनों से विदित होता है कि उनके लक्ष्य थे---हिन्दी-भाषियों की मानसिक भूमिका का विकास करना, संस्कृत-साहित्य का पुनरुत्थान, खडीबोली-कविता का उन्नयन, नवीन पश्चिमीय शैली की महारता में भावाभिव्यंजन, संसार की वर्तमान प्रगति का परिचय और साथ ही प्राचीन भारत के गौरव की रक्षा करना । हिन्दी-पाठकों की असंस्कृत १. अात्म-निवेदन, 'साहित्य-सन्देश', एप्रिल, १९३६ ई., के आधार पर २ 'साहित्य-संदेश'.-.-एप्रिल, १९३६ ई. में प्रकाशित ग्रामनिवेदन के आधार पर
SR No.010414
Book TitleMahavira Prasad Dwivedi aur Unka Yuga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaybhanu Sinh
PublisherLakhnou Vishva Vidyalaya
Publication Year
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy