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________________ म एक सत्कृत पढ लिने दहाता र कुपमटक च स ऊपर नर्ग उठ सका था अनध्याय अनभ्यास और अस्गति र कारण व परम्परागत निदी का यभाषा ब्रज अोर अवधी पर अधिकार नहीं कर भके थे । इभी कारण उनके भावों मे मचाई और सुन्दरता के होते हुए भी उनकी रचनाश्री मे कविता बा लालित्य नहीं ग्रा पाया। आगे चलकर जिस प्रकार द्विवेदी जी ने मैथिलीशरण गुप्त श्रादि का गुरुत्व किया यदि उसी प्रकार उन्हे भी कोई गुरु मिल गया होता तो बहुत मम्भव था कि वे मी एक अच्छी कोटि के कवि हो गए होते। सम्पादक द्विवेदी की ज्ञानभूमिका का असाधारण रूप से विस्तार हुआ किन्तु उसके साथ ही उनके कर्तव्य की परिधि भी अनन्तरूप से विस्तृत हो गई । अर्धशिक्षित हिन्दी पाठकों को शिक्षित करना था। हिन्दी के प्रति उदासीनो को हिन्दी का प्रेमी बनाना था। पथभ्रष्ट समाज, लेखको और पाठको को प्रशस्त मार्ग पर लाना था। हिन्दी-साहित्य को दूषित करने वाले कृडाकरकट को साफ करना था । अभिव्यंजन में अममर्थ हिन्दी को प्रोड, संस्कृत और परिष्कृत रूप देना था। तिरकत देवनागरी लिपि और हिन्दी-भाषा की उचित प्रतिष्ठा करनी थी। विपन्न हिन्दी-साहित्य को सम्पन्न बनाने के लिए विविधविषयक माहित्यकारी के निर्माण की आवश्यकता थी। इस प्रकार की सर्वतोमुख आवश्यकताओं की पूति करने के लिए द्विवेदी जी के कवि को, अपना निजत्व ग्वोकर, शिक्षक, उपदेशक, अालोचक, मुधारक और निर्माता बन जाना पड़ा । वह काव्यभाषा ग्वडीबोली का शैशवकाल था। अभिव्यंजना का निर्बल माध्यम कलासौन्दर्य धारण ही नहीं कर सकता । इमीलिए स्वडीबोली की तत्कालीन रचनाओं में कविता की अभीष्ट रमणीयता न पा सकी। द्विवेदी-युग का प्रथम चरण योग्य माध्यम-निर्माण की साधना में ही व्यतीत हो गया । द्विवेदीसम्पादित 'सरस्वती' में प्रकाशित कविताश्री का काव्योचित संशोधन इस बात का साक्षी है कि द्विवेदी जी में भी कविप्रतिभा थी। गोपाल शरण सिह की मृल पंक्तिया थी -- मधुपपंक्ति नित पुष्पप्रेमधारा मे बहती या वह अति अनुरक्त बौर पर भी है रहती।' द्विबेटी जी ने उसका संशोधन किया-- मधुपपंक्ति जो पुष्पप्रेमरस मे नित बहती, अाम्रमंजरी पर क्या वह अनुरक्त न रहती ? रस', 'अाम्रमंजरी' और प्रश्नवाचक चिन्ह की योजना ने इस पद को निस्सन्देह सरस, मार्मिक । १. 'माता की महिमा', 'सरस्वती' की हस्तलिखित प्रतियां. १६१४ ई०. काशी-नागरी प्रचारिणी-सभा के में रचित
SR No.010414
Book TitleMahavira Prasad Dwivedi aur Unka Yuga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaybhanu Sinh
PublisherLakhnou Vishva Vidyalaya
Publication Year
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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