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________________ की वस्तु) इ, उमा प्रकार कविता भी सुरम्यकपा (रमणाय अ-, का प्रतिपादन करनेवाली शब्दस्वरूपा), रमगशिरजिता (श्रृंगार आदि.ग्मा में पूर्ण), विचित्रवर्णा भरणा (अनेक प्रकार के चित्रमय शब्दालंकारा ने ममन्त्रित), अलौकिकानन्दविधायिनी (लोकोत्तर चमत्कार की मष्टि करनेवाली) और कवीन्द्रकान्ता (महाकवियों की अभिप्रेत) वस्तु है । ___कविन्यमौन्दर्य का उपस्थापन करने के लिए कल्पना की ऊंची उडान अनिवार्य नहीं है। द्विवेदी जी के यथार्थवादी पदों में भा कहीं कहीं उत्तम काव्यचमत्कार है केचिद्वधूवदनचन्द्रविलोकनाय, कचिद्धनस्य हरणाय परस्थ केचित् कलेययुग्रहणदुष्परिणामदु खनाशाय सन्निकटवर्तिजलाशयस्य ॥१ ग्रहण अादि अवमरो पर मेला में जाने वाले मजन और अमजन लोगों का यह चित्र परम स्वाभाविक है । कुछ ही लोग ऐसे होते हैं जो अमायिक धर्मभावना मे प्रेरित होकर स्नानादि के निमित्त जान है । प्रायः दुष्टजनो की ही अधिकता रहती है जो पाप-भावना म प्रेरित होकर उस अवसर का दुरुपयोग करते है । द्विवेदी जी की 'विनय-विनोद', 'विहार-बाटिका', 'लहमाला' श्रादि प्रारंभिक कतिमा म अोज और प्रमाद गुणो की न्यूनता होते हुए भी माधुर्य की मनोहरता है। उनमें भी कही कहीं प्रसन्नता दिखाई पड़ जाती है। 3 ऋतुतरंगिणी में प्रामादिकता का सार्वत्रिक अभाव है। उनकी संस्कृत और खडीवोली की कविताएं व्यापक रूप से प्रसादगुण-मम्पन्न हैं, यथा कि विद्यया कि तब वर्णन व्यापारवृत्या किमु चापि भत्या जयत्यही स श्वशुरालयम्ने त्वं कल्पवृक्षीयसि यं सदैव ।। ४ थित्रा नित्य असत्य बोलने में जो तनिक नही सकुचाते है, सींग क्यों नहीं उनके सिर पर बड़े बड़े उग आते है ? १. द्विवेदी-काव्यमाला'. पृ० २०४ । २. उदाहरणार्थ वसन आसन प्रासनि दास के, विलग पी रस की हँसि हाँस के । हग लसै विलसै अलसै गही, सुमनहार विहार विहाय ही विषदी ३५
SR No.010414
Book TitleMahavira Prasad Dwivedi aur Unka Yuga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaybhanu Sinh
PublisherLakhnou Vishva Vidyalaya
Publication Year
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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