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________________ सर्वोदयतीर्थ के कुछ मूलसूत्र ३७ एकान्तदृष्टिका प्रतिषेधक है । ६२ वस्तुके जो अंश (धर्म) परस्पर निरपेक्ष हों वे पुरुषार्थ के हेतु अथवा अर्थ-क्रिया करने में समर्थ नहीं होते । ६३ जो द्रव्य है वह सत्स्वरूप है । ६४ जो सत् है वह प्रतिक्षण उत्पाद-व्यय-धौव्यसे युक्त है। ६५ उत्पाद तथा व्यय पर्यायमें होते हैं और धौव्य गुणमें रहता है, इसीसे द्रव्यको गुण-पर्यायवान् भी कहा गया है। ६६ जो सत् है उसका कभी नाश नहीं होता । ६७ जो सर्वथा सत् है उसका कभी उत्पाद नहीं होता । ६८ द्रव्य तथा सामान्यरूपसे कोई उत्पन्न या विनष्ट नहीं होता; क्योंकि द्रव्य सब पर्यायों में और सामान्य सब विशेषोंमें रहता है। ६६ विविध पर्यायें द्रव्यनिष्ठ एवं विविध विशेष सामान्यनिष्ठ होते हैं । ७० सर्वथा द्रव्यकी तथा सर्वथापर्यायकी कोई व्यवस्था नहीं बनती और न सर्वथा पृथग्भूत द्रव्य-पर्यायकी युगपत् ही कोई व्यवस्था बनती है । ७१ सर्वथा नित्यमें उत्पाद और विनाश नहीं बनते, विकार तथा क्रिया-कारककी योजना भी नहीं बन सकती । ७२ विधि और निषेध दोनों कथंचित् इष्ट हैं, सर्वथा नहीं । ७३ विधि-निषेधमें विवक्षासे मुख्य- गौरण की व्यवस्था होती है ७४ वस्तुके किसी एक धर्मका प्रधानता प्राप्त होनेपर शेष धर्म गौ हो जाते हैं। ७५ वस्तु वास्तव में विधि-निषेधादि-रूप दो-दो अवधियोंसे ही कार्यकारी होती है। ७६ बाय और श्राभ्यन्तर अथवा उपादान और निमित्त दोनों कारणों के मिलने से ही कार्यकी निष्पत्ति होती है। ७७ जो सत्य है वह सब अनेकान्तात्मक है, अनेकान्तके
SR No.010412
Book TitleMahavira ka Sarvodaya Tirth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages45
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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