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________________ सर्वोदय - तीर्थ २१ महावीरकी श्रोरसे इस धर्मतीर्थका द्वार सबके लिये खुला हुआ है, जिसकी सूचक अगणित कथाएँ जैनशास्त्रोंमें पाई जाती हैं और जिनसे यह स्पष्ट जाना जाता है कि पतितसे - पतित प्राणियोंने भी इस धर्मका आश्रय लेकर अपना उद्धार और कल्याण किया है; उन सब कथाओंको छोड़ कर यहां पर जैनग्रन्थोंके सिर्फ कुछ विधि-वाक्योंको ही प्रकट किया जाता है जिससे उन लोगोंका समाधान हो जो इस तीर्थको केवल अपना ही साम्प्रदायिक तीर्थ और एकमात्र अपने ही लिये अवतरित हुआ समझ बैठे हैं तथा दूसरोंके लिये इस तीर्थसे लाभ उठानेमें अनेक प्रकार से बाधक बने हुए हैं । वे वाक्य इस प्रकार हैं: (१) दीक्षायोग्यास्त्रयो वर्णाश्चतुर्थश्च विधोचितः । मनोवाक्कायधर्मा मताः सर्वेऽपि जन्तवः ॥ (२) उच्चाऽवच - जनप्रायः समयोऽयं जिनेशिनाम् । नैकस्मिन्पुरुषे तिष्ठेदेकस्तम्भ इवालयः ॥ - यशस्तिलके, सोमदेवसूरिः (३) आचाराऽनवद्यत्वं शुचिरुपस्कारः शरीरशुद्धिश्च करोति शुद्रानपि देव द्विजाति- तपस्वि - परिकर्मसु योग्यान् ॥ - नीतिवाक्यामृते, सोमदेवसूरिः (४) शूद्रोऽप्युपस्कराऽऽचार - वपुः शुद्धयाऽस्तु तादृशः । जात्या हीनोपि कालादिलब्धौ ह्यात्माऽस्ति धर्मभाक् । - सागारधर्मांमृते, प्रशाघर: (५) एहु धम्मु जो यरह बंभणु सुदु वि कोइ । सो साव किं सावयहं श्रएणु कि सिरि मणि होइ | ६७ —सावयधम्मदोहा (देवसेनाचार्य )
SR No.010412
Book TitleMahavira ka Sarvodaya Tirth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages45
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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