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________________ सर्वोदय-तीर्थ १६ सापेक्ष संयोगसे ही एक-दूसरेकी कमी दूर होकर संसारके दुःखोंसे मुक्ति एवं शान्ति मिल सकती है।' इस सब कथनपरसे मिध्यादर्शनों और सम्यग्दर्शनोंका तत्त्व सहज ही समझमें आ जाता है और यह मालूम हो जाता है कि कैसे सभी मिध्यादर्शन मिलकर सम्यग्दर्शनके रूपमें परिणत हो जाते हैं । मिथ्यादर्शन अथवा जैनेतरदर्शन जबतक अपने-अपने वक्तव्यके प्रतिपादनमें एकान्तताको अपनाकर पर-विरोधका लक्ष्य रखते हैं तबतक सम्यग्दर्शनमें परिणत नहीं होते, और जब परविरोधका लक्ष्य छोड़कर पारस्परिक अपेक्षाको लिये हुए समन्वयकी दृष्टिको अपनाते हैं तभी सम्यग्दर्शनमें परिणत हो जाते हैं, और जैनदर्शन कहलानेके योग्य होते हैं । जैनदर्शन अपने अनेकान्तात्मक स्याद्वाद-न्यायके द्वारा समन्वयकी दृष्टिको लिये हुए है-समन्वय ही उसका नियामक तत्त्व है न कि विरोध, और इसलिये सभी मिध्यादर्शन अपने-अपने विरोधको भुलाकर उसमें समा जाते हैं। इसीसे सन्मतिसूत्रकी अन्तिम गाथामें जिनवचनरूप जिनशासन अथवा जैनदर्शनकी मंगलकामना करते हुए उसे 'मिथ्यादर्शनोंका समूहमय' बतलाया है, जो इस प्रकार है भई मिच्छादसणसमूहमइयस्स अमयसारस्स । जिणवयणस्स भगवो संविग्ग-सुहाहिगम्मस्स ॥७॥ इसमें जिनवचनरूप जैनदर्शन (जिनशासन ) के तीन खास विशेषणोंका उल्लेख किया गया है--पहला विशेषण मिथ्यादर्शनममूहमय, दूसरा अमृतसार और तीसरा संविग्नसुखाधिगम्य है। मिध्यादर्शनोंका समूह होते हुए भी वह मिथ्यात्वरूप नहीं है, यही उसकी सर्वोपरि विशेषता है और यह विशेषता उसके सापेक्षनयवादमें सन्निहित है-सापेक्षनय मिथ्या नहीं होते, नितनय
SR No.010412
Book TitleMahavira ka Sarvodaya Tirth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages45
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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