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________________ सर्वोदय-तीर्थ और गौण तथा मुख्यकी कल्पनाको साथमें लिये हुए है—एक धर्म मुख्य है तो दूसरा धर्म गौण है; जो गौण है वह निरात्मक नहीं होता और जो मुख्य है उससे व्यवहार चलता है; इसीसे सब धर्म सुव्यवस्थित हैं। उनमें असंगतता अथवा विरोधके लिये कोई अवकाश नहीं है । जो शासन-वाक्य धर्मों में पारस्परिक अपेक्षाका प्रतिपादन नहीं करता- उन्हें सर्वथा निरपेक्ष बतलाता है वह सर्वधर्मो से शून्य है-उनमें किसी भी धर्मका अस्तित्व नहीं बन सकता और न उसके द्वारा पदार्थ-व्यवस्था ही ठीक बैठ सकती है । अतः आपका ही यह शासनतीर्थ मब दुःखोंका अन्त करनेवाला है. यही निरन्त है--किमी भी मिध्यादर्शनके द्वारा खण्डनीय नहीं है और यही सब प्राणियोंके अभ्युदयका कारण तथा आत्माके पूर्ण अभ्युदय ( विकास ) का साधक ऐमा सर्वोदयतीर्थ है-जो शासन सर्वथा रकान्तपतको लिये हुए हैं उनमंसे कोई भी 'सर्वोदयतीर्थ' पदके योग्य नहीं हो सकता।' __यहाँ 'सर्वोदयतीर्थ' यह पद सर्व, उदय और तीर्थ इन तीन शब्दोंसे मिलकर बना है । 'मर्व' शब्द सब तथा पूर्ण (Completc) का वाचक है; 'उदय' ऊँचे-ऊपर उठने, उत्कर्ष प्राप्त करने, प्रकट होने अथवा विकासको कहते हैं; और 'तीर्थ' उसका नाम है जिसके निमित्तसे संसारमहासागरको तिरा जाय । वह तीर्थ वास्तबमें धर्मतीर्थ है जिसका सम्बन्ध जीवात्मासे है, उसकी प्रवृत्तिमें निमित्तभूत जो आगम अथवा प्राप्तवाक्य है वही यहाँ 'तो' शब्दके द्वारा परिग्रहीत है। और इसलिये इन तीनों शब्दोंके सामासिक योगसे बने हुए 'सर्वोदयतीर्थ' पदका फलितार्थ यह है कि-जो आगमवाक्य जीवात्माके पूर्ण उदय-उत्कर्ष अथवा विकासमें तथा सब जीवोंके उदय-उत्कर्ष अथवा विकासमें सहा* "तरति संसारमहार्णवंयेन निमित्तेन तत्तीर्थमिमिति'-विद्यानन्दः
SR No.010412
Book TitleMahavira ka Sarvodaya Tirth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages45
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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