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________________ धर्म-सस्करण २ गावो मे जिम धर्म का पालन होता है उसमें भय, रिश्वत, देववाद और जंतर-मतर का कर्मकाण्ड हो मुन्न होता है-फिर वह धर्म हिन्दुनो का हो, मुसलमानो का हो या मिाइयो का हो। गांव के लोगो को अपनी दुर्बलता का, अमान का. भोलेपन का और अनाय म्पिनि मा अनुभव से उत्पन्न इतना फडवा ज्ञान होता है कि वे न्याभाविक रूप में ही शक्ति के उपागफ बन जाते हैं, फिर भले थे लोग जैन हो या लिंगायन हो। म अमान-मूनकगतिजा मेरी जादू-टोने और जतर-मतर पर लोगो को माम्था जमनी । धर्म यानी वनयान की आराधना अथवा गरीदा हुया उनका मरक्षण-मामान्य जनता धम पा अर्थ यही समझती है। धर्म ने द्वाग मागत्य पर मनुष्य मी श्रमा बनानी होती है, नरिम को तेजस्विता पो म्वाभाविक बनाना होना है। नमार के अनुभव में पद-पर पर जो विपाद प्राप्त होता है उसे दूर पाने में गमय देवी प्राध्यागन प्राप्त करना होता है और जीवन के अगभूत प्रत्येक तन्ना नूनन दृष्टि में नया तरी मूल्याउन करना होता है। नफनना पीर निष्फनता के प्रयानो को ही बदल कर ग भौतिक जगत मे प्राध्यात्मिक म्वातत्य गिद्ध करना होता । मंद्धान्तिक विवेचन की दृष्टि में यह दृष्टिभेद बहन कठिन मानम होगा लेकिन जहां हृदय के माप दृदय बात करता है वहाँ उन्नत भूमिका गा प्रामरण हृदय पर गहरा अमर करता है, और एक बार हृदय मे परिवर्तन हो गया कि फिर किसी भी उपाय में उमगे पीछे नहीं हटा जा सकता। हृदय का ऐमा प्रामंत्रण देने वाले व्यक्ति के अपने हृदय में निमी के बारे में तुच्छता का भाव नहीं होना चाहिये । हमारा प्रामपण अमाघ है, ऐमी अमर श्रास्तिकता उममे होनी चाहिये । साथ ही मनुष्य मार के हृदय के बारे में उसके दिल मे प्रेम और पाम्या-पादर होना चाहिये । धर्मजान देते या लेते समय उमे ग्रहण करने वाले के अधिकार के विषय में आज तक अपार चर्चा हुई है । लेकिन अब धर्मगान देने वाले व्यक्ति के अधिकार की गहरी चर्चा करने के दिन पाये है। ऊपर बताई हर्ष आस्तिकता जिन लोगो मे हो, उन्ही को धर्मवोध और धर्म-मरक्षण का कार्य अपने सिर लेना चाहिये। आज गांवो मे धर्मान्धता के स्प मे नास्तिकता कितनी फैली हुई है, इसका सच्चा खयाल होने पर मन को गहरा प्राधान ही लगना चाहिये और लगता मी है।
SR No.010411
Book TitleMahavira ka Jivan Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajasthan Prakruti Bharati Sansthan Jaipur
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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