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________________ धर्म सस्करण २ धर्म-संस्करण : २ 133 73 एकमात्र धर्म हो मानव जीवन का सब पहलुश्री से और समग्र रूप में विचार करता है । जीवन का स्थायी अथवा प्रस्थायी एक भी अंग ऐसा नही है, जिस पर विचार करना धर्म अपना कर्त्तव्य नहीं मानता । इसलिये धर्म मनुष्य के मनातन जीवन जितना ही प्रथवा उसमे भी अधिक व्यापक होना चाहिये, श्रीर च कि नमस्त जीवन उसका क्षेत्र है, म लिये उमे श्रत्यन्त उत्कट रुप मे जीवत और प्राणवान होना चाहिये । आज जगत के जितने भी प्रसिद्ध धर्म है, वे अधिकाश ऐसे व्यापक धर्म हैं। अपनी स्थापना के समय तो वे मव जीवत थे ही। परन्तु धार्मिक पुरुषो ने उनकी चेतना को बार-बार जगाकर उन्हें जीवत बनाये रखा है । सिगडी की श्राग जिम प्रकार स्वाभाविक रूप में ही वारवार मद पड जाती है और इसलिये बार-बार उसमें कोयने उान कर और फूक कर उसका मम्करण करना पडता है, उसे प्रज्वलित रखना पडता है, उसी प्रकार समाज मे धर्म-तेज को जाग्रत रखने के लिए धम-परायण ममाज-पुरुषी को उगे फूकने और उसमे ईधन डालने का काम करना पड़ता है। यह काम यदि समय- समय पर न किया जाय, तो धर्म-जीवन क्षीण और विकृत हो जाता है, और धर्म का क्षीण र विकृत रूप धर्म के 'जितना हो हानिकारक होता है । धर्मं को चेतनावान और प्रज्वलित रखने का कार्य केवल धर्म-परायण व्यक्ति ही कर सकते है । यह शक्ति न तो धर्मग्रन्थो मे होती है, न धार्मिक रीति-रिवाजी या सम्कारा मे होती है, न धार्मिक सस्थात्रों में होती है श्रीर न धर्म को सहारा देने वाली राज्य-व्यवस्था होती है । शास्त्रग्रन्थ, सस्कार, रीति-रिवाज और धार्मिक तथा राजकीय सस्थायें धार्मिक जीवन के लिए कम-अधिक मात्रा मे उपयोगी हैं जर, यह भी सच है कि धार्मिक वातावरण को स्थिर बनाने मे उनकी मेवा वहुमूल्य मिद्ध हुई है । परन्तु मूल शक्ति तो धर्मप्राण ऋषियों की, सतो की और महात्माओ की ही होनी है । पवित्र मनुष्य हृदय ही धर्म का अन्तिम आधार है । उपनिषद् का यह वचन बिलकुल यथार्थ है 'धर्मशास्त्र महर्षीणा अत व रग सभृतम् ।'
SR No.010411
Book TitleMahavira ka Jivan Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajasthan Prakruti Bharati Sansthan Jaipur
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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