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________________ महावीर का जीवन संदेश रचना मे ही परिवर्तन का तत्त्व रख दिया है । इसीलिये वह धर्म सनातन पद प्राप्त कर सका है । अनेक वार क्षीणप्राण होने पर भी वह निष्प्राण नही हुआ है। मनुष्य की जडता के कारण अनेक वार इस धर्म मे सडाध पैठी है, फिर भी किसी प्रकार के विप्लव के बिना उसका पुनरुद्धार हुआ है । 70 सामाजिक व्यवस्था मे अथवा धार्मिक विधियो के रिवाज मे समय के अनुकूल परिवर्तन होना चाहिये, परन्तु जव से हिन्दू समाज मे श्रबुद्धि ने जड जमायी है तब से ऐसे परिवर्तनो की ओर हिन्दू लोग शका की दृष्टि से देखने लगे है । पूर्वजो की अपेक्षा हमारा सवानापन वढ ही नही सकता, पूर्वज तो त्रिकाल का विचार करने वाले थे, उनकी रची हुई व्यवस्था मे यदि हस्तक्षेप करेगे तो पता नही कौनसे सकट मे हम पड जायेगे - ऐसा कायर भय अथवा नास्तिकता हमारे भीतर घुस गई है। सच पूछा जाय तो परिवर्तन का भय सनातन धर्म के स्वभाव के विरुद्ध है। चचलता के कारण किये जाने वाले परिवर्तन की कोई हिमायत नही करेगा, परन्तु अज्ञानता के कारण प्रगति से डरकर निष्प्राण स्थिरता खोजने मे पुरुषार्थ नही बल्कि मृत्यु ही है । गहरे विचार के विना अपने धर्म को त्याग कर दूसरो का धर्म ग्रहण करना एक बात है, और अपने तथा दूसरो के धर्म की जाँच करके अपने धर्म मे श्रावश्यक परिवर्तन और सुधार करना दूसरी बात है । ईश्वर प्रत्येक युग मे हमारे सामने नई-नई परिस्थितियाँ खडी करके हमारी बुद्धिशक्ति को सक्रिय बनाये रखता है और इस प्रकार धर्म के मूल सिद्धान्तो के हमारे परिचय को जाग्रत रखता परिवर्तन न हो, तो उसके भीतरी तत्त्व का हमारे जमाने मे यदि पूर्वजो की ही नकल करना, जानना अथवा खोजना वाकी हमारी शताब्दी निरर्थक और वध्या है । यदि धर्म के बाह्य ग्राकार मे शुद्ध प्राकलन हो ही नही सकता। करने का काम रह जाय, नया कुछ भी न रह जाय, तब तो कहा जायगा कि ही सिद्ध हुई है । हमारे देश में प्राचीन कॉल से हर तरह एक-दूसरे से अलग पडने वाले धर्म और वश साथ-साथ रहते आये है । ऐसे सहवास के कारण हमे हर समय धर्म-प्रवचन अलग-अलग ढंग से करना पडा है । जिस प्रकार की शका दूर करनी हो, जिस प्रकार के दोष मिटाने हो, उसी के अनुसार हमे एक ही धर्म - सिद्धात को नई-नई भाषा मे और नये-नये रिवाजो के रूप मे प्रस्तुत
SR No.010411
Book TitleMahavira ka Jivan Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajasthan Prakruti Bharati Sansthan Jaipur
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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