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________________ 64 महावीर का जीवन मदेश लोग जब तक श्रीर न्याय, दर्शन और मीमासा की बात को ले बैठने है और घटत्व तथा पटन का श्रीर श्रवच्छेदकावच्छ का पिष्ट-पेपण करते है, तब हम उन पर हँसते है और कहते है कि जिनका जीवन के साथ कोई सम्बन्ध नही, तत्त्व में जो सर्वथा दूर है. ऐगी निरर्थक बाता की चर्चा में ये लोग क्यो पते होग ? हम कहते है कि उनकी उन बातों में जीवन को स्पर्श करने वाला थोडा भी अश नही होना । यूरोप मे भी जब लोग व्यक्तिवाद और ममप्टिवाद, समाजवाद र साम्यवाद की चर्चा करने है तब मन में विचार श्राता है कि इन अनेक 'वादो' से क्या लाभ होने वाला है? मनुष्य जब तक अपने स्वभाव श्रीर जीवन में परिवर्तन न करे तब तक हम कोई भी 'वाद' (Isni) क्यो न चला, अत मे हम वही या पहुँचेंगे जहां पहले थे । स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि जगत का दुरा मधिवात (गठिया रोग) जैमा है । ऊपर के लेप से वह मिटने वाला नहीं है। सिर से उसे निकालो तो वह पैर मे बैठ जाता है । पैर से उसे निकालो तो वह कधे मे धम जाता है। वह अपना स्थान ती बदलता रहेगा, लेकिन शरीर को नहीं छोडेगा । श्राप यदि व्यक्तिवाद को चलायेंगे तो दुनिया को एक प्रकार का दुख भोगना पडेगा । व्यक्तिवाद के स्थान पर यदि श्राप ममष्टवाद को स्वीकार करेंगे, तो पुराने दु ख मिटकर . उनके स्थान पर नये दुरा पैदा हो जायेंगे । जकात को टालने के लिए रात भर जगल में भटकने के बाद सवेरे गाडी जब रास्ते पर आई तो ठीक जकात नाके के सामने हो जकात के पैसे तो चुकाने ही पडे, ऊपर से रात भर जगल मे व्यर्थ भटके सो अलग। यही दशा ग्राज की दुनिया को है । आचार्य एल.पी जैक्म ने ठीक ही कहा है कि श्राज को दुनिया सम्पत्ति को सामाजिक बनाना चाहती है, राज्यसत्ता को सामाजिक वनाना चाहती है, किन्तु मनुष्य को और उसके स्वभाव को सामाजिक बनाने की बात उसे नही सूझती। जब तक यह नही होता तव तक किसी भी 'वाद' की सच्ची स्थापना नही होगी, और यदि मनुष्य का चरित्र सुधर गया तब तो किसी भी 'वाद' से हमारा काम चल जायेगा । इसका एक सुन्दर उदाहरण मैं आपके सामने रखता हूँ । । शराव की बुराई से सारी दुनिया त्रस्त है । अमेरिका ने कानून वनाकर इस बुराई को दूर करने का प्रयत्न किया । जिन लोगो ने कानून बनाने की सम्मति दी, उन्हे स्वय शराववदी की कोई परवाह नही थी । समाज मे प्रतिष्ठा भोगने वाले वडे-बडे स्त्री-पुरुष भी खुले श्रम कानून का भग करने
SR No.010411
Book TitleMahavira ka Jivan Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajasthan Prakruti Bharati Sansthan Jaipur
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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