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________________ अहिंसा का वैज्ञानिक प्रस्थान जैन दृष्टि की जीवन-साधना में अहिमा का विचार काकी सूक्ष्मता तक पहुँचा है। उसमें अहिंसा का एक पहल है जीवो के प्रति करुणा और दूसरा है स्वय हिंसा के दोप से बचने की उत्कट कामना । दोनो मे फर्क है। करुणा मे प्राणी के दुख निवारण करने की शुभ कामना होती है । प्राणियों का दुख दूर हो, वे सुखी रहे. उनके जीवनानुभव मे बाधा न पडे, इस इच्छा के कारण मनुष्य जीवो के प्रति अपना प्रेम वढाता है, सहानुभूति बढाता हे और जितनी हो सके सेवा करने दौडता है । दूसरी दृष्टि वाला कहता है कि सृष्टि में असंख्य प्रागी पैदा होते है, जीते हैं, मरते है, एक-दूसरे को मारते है, अपने को बचाने की कोशिश करते है । यह तो सब दुनिया मे चलेगा ही। हरएक प्राणी अपने अपने कर्म के अनुसार सुख-दुख का अनुभव करेगा । हम कितने प्राणियो को दुख से वचा सकते है ? दुख से बचाने का ठेका लेना या पेशा बनाना अहकार का ही एक रूप है। इस तरह का ऐश्वर्य कुदरत ने या भगवान् ने मनुष्य को दिया नहीं है । मनुष्य स्वय अपने को हिंसा से वचावे । न किसी प्राणी को मारे, मरावे या मारने मे अनुमोदन देवे । अपने को हिंसा के पाप से बचाना यही है अहिंसा । इस दूसरी दुष्टि मे यह भी विचार आ जाना हे कि हम ऐसा कोई काम न करे कि जिसके द्वारा जीवो की उत्पत्ति हो और फिर उनको मरना पडे । अगर हमने आस-पास की जमीन नाहक गीली कर दी, कीचड इकट्ठा होने दिया तो वहाँ कीट-सृष्टि पैदा होगी। पैदा होने के बाद उसे मरना ही है । वह सारा पाप हमारे सिर पर रहेगा। इसलिये हमारी अोर से जीवोत्पत्ति को प्रोत्साहन न मिले इतना तो हमे देखना ही चाहिये । यह भी अहिसा की साधना है। इसी वृत्ति से ब्रह्मचर्य का पालन अहिंसा की साधना ही होगी। जीव को पैदा नहीं होने दिया तो उसे पैदा करके मरणाधीन बनाने के पाप से हम बच जायेगे। करुणा इससे कुछ अधिक बढती है। उसमे कुछ प्रत्यक्ष सेवा करने की बात आती है। प्राणियो को दुख से बचाना, उनके भले के लिये स्वय कष्ट
SR No.010411
Book TitleMahavira ka Jivan Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajasthan Prakruti Bharati Sansthan Jaipur
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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