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________________ जैन धर्म और अहिंसा धर्म की अनेक व्याख्याये की गई है। मेरे विचार से धर्म की उत्तम व्याख्या यह है “जीवन-शुद्धि और समृद्धि की साधना जो दिखाये वह धर्म है।" प्रत्येक धर्म मे आत्मोद्धार के लिये जो बाते बताई गई है, उनके द्वारा ही मनुष्य अपनी उन्नति कर सकता है। यह साधना दो प्रकार से होती है। केवल अपना ही विचार करके आत्मशुद्धि से आत्म-विजय प्राप्त करना और अन्त मे मुक्त होना, यह पहली साधना है। दूसरी साधना वह है जिसमे केवल व्यक्ति का विचार न करके समस्त समाज का विचार किया जाता है। सारे व्यक्तियो को मिलाकर समाज वनता है और वह समाज ही मुख्य माना जाता है । जैसे हम शरीर के एक-एक अवयव का विचार नहीं करते, परन्तु समग्र शरीर का विचार करते हैं, वैसे ही मुख्यत विचारणीय प्रश्न यह है कि सगठन बनाकर रहने वाली मनुष्य-जाति अहिंसा की साधना कैसे कर सकती है। मेरी मान्यता के अनुसार अभी तक मनुष्य-जाति की बाल्यावस्था थी, इसलिये केवल व्यक्ति के लिये मार्ग विचारने और बताने से हमारा काम चल जाता था। परन्तु अव जो कार्य हमारे सामने है वह विकट और व्यापक हे । अब निश्चित तथा व्यवहार्य सामाजिक साधना बताने के दिन आये है। आज की साधना केवल आत्मशुद्धि की नही परन्तु समाज-जीवन की शुद्धि की साधना है । प्रत्येक वालक को कभी न कभी ऐसा लगता ही है कि कल जो वात मेरी समझ मे नही आती थी वह आज समझ मे आ रही है। मनुष्य को भी अक्मर ऐसा लगता है कि अमुक महापुरुप के इस जगत मे आने के बाद ही इतनी बात हमारी समझ मे आई। प्रत्येक धर्म मे साधना का मार्ग दिखाने वाले महापुरुष आते है। मुसलमानो का विश्वास है कि इस्लाम के नवी मुहम्मद साहब ने जो कुछ कहा वह अन्तिम वचन है। सनातनी हिन्दू भी ईश्वर के अमुक सख्या के अवतारो मे विश्वास करते है। जैन भी चौवीस * तारीख 6-6-80 को वम्बई मे हुई सभा मे अध्यक्ष पद से दिये गये भापण का सारभाग-1
SR No.010411
Book TitleMahavira ka Jivan Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajasthan Prakruti Bharati Sansthan Jaipur
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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