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________________ 108 महावीर का जीवन सदेश थे । अाज का मनुष्य अपने प्रतिपक्षी से कहेगा, देखो, मेरी वात' मै तुम्हारे गले नहीं उतार सकता, इतनी मेरी हार मुझे कबूल करनी ही होगी । लेकिन तुम्हारी बात मुझे जंचती नहीं उसका क्या ? इसलिये उचित यही है कि हम अपना परस्पर मतभेद स्वीकार करने को तैयार हो जायें । इस तरह की इस समझदारी से ही शान्तिमय' सहचार मनुष्य-जाति को मान्य होने लगा है। आपका कहना आपको मुबारक, मेरा मुझे । अब हम समझदारी से तय करे कि कोई भी किमी का रास्ता न रोके । चिन्तन करते-करते एक की दृष्टि दूसरे को मान्य होगी तब होगी। सत्य एक ही होने के कारण कभी न कभी एक दूसरे का कहना एक दूसरे को मान्य होना ही चाहिये । तव तक धैर्य रखने की और राह देखने की दोनो ओर से तैयारी होनी चाहिये । कभीकभी उच्च भूमिका पर पहुंचने के बाद ही भिन्न-भिन्न भूमिकाएँ एक पाथ सहज मान्य होती है। हमारे देश मे बौद्ध, जैन और वेदान्त ऐसी तीन धाराये चलती आई है । वेदान्त हमे प्रात्मौपम्य की साधना बताता है और आत्मैक्य का सर्वश्रेष्ठ पुरुपार्थ हमारे सामने रखता है । जीव और जगत् एक ही है, आत्मा और परमात्मा मे कोई भेद नही, सर्वत्र एक ही अद्वैत का अखण्ड स्फुरण हो रहा है यह वात ध्यान मे आने के बाद कौन किसकी हिंसा करेगा ? हर एक हिसा तत्त्वत आत्म-हत्या ही है। इतना समझने के बाद हर एक के लिए अहिंसा स्वाभाविक ही बन जाती है। सम पश्यन् हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम् । न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परा गतिम् ।। इस एक श्लोक मे वेदान्त का रहस्य आ जाता है और वेदान्तमूलक प्राचार की नीति भी। जैन दर्शन अनेकान्त की भूमिका पर मे 'केवलज्ञान' की कल्पना करा देता है । 'ईश्वर है या नहीं' इस चर्चा मे वह नहीं उतरता । जीवन-साधना को ईश्वर से क्या लेना-देना है ? तपस्या के द्वारा सब दोपो को जला दिया, स्याद्वाद से दृष्टि को निर्मल किया कि फिर आत्म-साक्षात्कार होगा ही और जीवन भी सार्थक होगा।
SR No.010411
Book TitleMahavira ka Jivan Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajasthan Prakruti Bharati Sansthan Jaipur
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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