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________________ ६८7 महावीर का अस्तम्तल . Ninnnnnnnn कह सकते। देवी-तथ्य में सत्य देखने की क्षमता मुझमें नहीं है देव, मैं तथ्य की तीक्ष्णता से ही इतनी घायल होजाती हूं कि सत्य को खोजने की हिम्मत ही टूट जाती है । आप जो आज कल कर रहे हैं उसमें भी सत्य तो होगा ही, पर उसका स्वाद मुझे नहीं मिल पातां । इस नारियल के तथ्यरूपी जटों से ही मेरी जीभ इतनी छिल जाती है कि सत्य की गिरी तक पहुंचने की हिम्मत. ही नहीं रहती। मैं- पर यह. क्षमता जरूरी है देवि! नहीं तो निरर्थक : कष्ट ही पल्ले पड़गा। .:. . देची- आप जिस प्रकार उचित समझे उसप्रकार इस कष्ट से मेरी रक्षा कीजिये । मेरी धृष्टता के कारण आप इसप्रकार कष्ट सहें यह मुझसे न देखा जायगा । मैं तो समझती हूँ, आत्मकष्ट दंड का भयंकरतम रूप है। मैं-तुम ठीक समझती हो देवि ! परं जो कुछ मैं करता। हूँ, वह आत्मकट नहीं है, सिर्फ अभ्यास है । अभ्यास को किसीप्रकार का दंड नहीं कहा जासकता।। देवी ने अचरज और सन्देह से दुहराया-अभ्यास है ? मैंने कहा-हो! अभ्यास है। जगत भोगों में ही सुख का अनुभव करता है आर भोगों की हा छीनाझपटी से वह नरक बना हुआ है। मैं बताना चाहता हूँ कि असली सुख का स्रोत भीतर से है, बाहर से नहीं। जगत को जो मैं बहुत से पाठ पढ़ाना चाहता हूं, सुसमें एक पाठ यह भी है । इसी के लिये यह अभ्यास है। देवी कुछ सोचने लगी, फिर बोली-देव, आप सरीखे जन्मजात ज्ञानी को और संकल्प वली को इस प्रकार का अभ्यास
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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