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________________ महावीरका अन्तस्तल ३७ ] नीति सदाचार की हत्या करने वाले हर एक मनुष्याकार जन्तु से मेरा मतलब है !!! ये सब अपराधी हैं। AAAAAAA माताजी स्तब्ध होगई। बड़ी देर तक उनके मुंह से एक शब्द भी न निकला फिर एक गहरी सांस लेकर बोली बेटा, तुम मनुष्य नहीं देवता हो: तुमने मुझे राजमाता नहीं देवमाता बनाया है । सचमुच तुम कितने महान हो। फिर भी तुम जिन अपराधियों का जिक्र करते हो अन्हें कौन दण्ड देसकता है ! मनुष्य तो दे ही नहीं सकता पर देवता भी नहीं सकते। ऐसे असम्भव कार्य की क्यों चिन्ता करते हो मेरे लाल ! पिछली बात बोलते बोलते माताजी की आंखें गीली होगई और सुनका अंचल आंखें मसलने लगा । माताजी की यह वेदना देखकर मेरा हृदय तिलमिलाने लगा | फिर भी मैंने धीरज से उत्तर दिया माताजी, संचमुच देवता वह कार्य नहीं कर सकते क्योंकि देवता कृतकृत्य होते हैं, पर मनुष्य कृतकृत्य नहीं होता वह 'कर्तव्यकृत्य' होता है, कर्मzar ही का जीवन है, यह असंम्भव को संम्भव कर सकता है । मैं जगत को जाएँगा और उसे बदल दूंगा । मेरे ओजस्वी वाक्य सुनकर माताजी के चेहरे पर फिर तेज दिखाई देने लगा । उनने प्रसन्नता से मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए कहा-अच्छा है बेटा, तुम जगद्विजयी बनो, चक्रवतीं वनो ! दुनिया को जीतकर अनीति अन्याय सब दूर करदो ! यह उदासीनता छोड़ो । मैंने कहा- मां, मैं इसीलिये तो उदासीन बना है । ददा"सीन बने विना जगत को देख भी तो नहीं सकता ।
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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