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________________ महावीर का अन्तस्तल [ ३२ अपना जीवन बीज की तरह मिट्टी में मिलाना है । यह रस मनुष्यमात्र का नहीं, प्राणिमात्र का है पर जब देखता हूँ कि एक गाय के आगे उसका साथी बलीवर्द धर्म के नाम पर टुकड़े टुकड़े कर दिया जाता है, तब उस गाय के या वलीवर्द के जीवन का रस कितना वच पाता है । यही हाल भैंस, भैंसा, बकरा, बकरी, हरिण, हरिणी आदि का है। खैर ! पशुओं की बात जाने दो, पर अस दिन शिवकेशी के सिर से पैर तक की जो सब हड्डियाँ तोड़ दी गई उससे उस शिवकेशी के और उसकी शिवकोशनी के जीवन में कितना रस बचा ? उस दिन पण्डितों के दलों ने जो एक दूसरे के सिर फोड़े तब उन कुटुम्बों में रात में कौनसा रस वहां होगा ? साथी के अतिभोग और व्यभिचार से पतिपत्नी के जीवन में कितना रस रह जाता है ? संसार की संपत्ति जब एक तरफ सिमट जाती है और दूसरी तरफ लोग दाने दाने को मुँहताज होजाते हैं तब उन कंगालों के जीवन में कितना रस रहजाता है ? ये सब रस सुखाने वाले पाप हैं इन्हें निर्मूल करने के लिये मुझे जीवन खपाना है । अगर ये पाप न होते, दुनिया में दुःख न होता तो मुझे जीवन खपाने का विचार न करना पड़ता । Niv SANA सुनते हैं एक जमाना ऐसा था, जब यहां कोई पाप नहीं था। जन्म से मरण तक दम्पति आनन्दमय जीवन विताते थे । उस समय न तो कोई धर्म - तीर्थ था न तीर्थकर न आचार्य, और प्रजा मरकर देवगति में जाती थी । आज मनुष्य ने मनुष्य का रस लूट लिया है और कोई शक्ति उसे रोक नहीं पा रही है इसलिये उसमें मनुष्यता का भाव भरने के लिये मुझ सरीखे जागरित मनुष्य का जीवन खपाना जरूरी है । बात ही बात में मैं एक प्रवचन सा कर गया । देवी भी ध्यान देकर मेरा प्रवचन सुनती रहीं और प्रवचन पूरा होने पर
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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