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________________ ૨૯૪ ] महावीर का अन्तस्तल है, और हर एक जीव सुख चाहता है और दुःख नहीं चाहता तब वह पाप क्यों करता है ? कैसे करता है ? सुखके लिये वह पुण्य ही क्यों नहीं करता ? मैं – सम्यक्त्व या स्वत्य का दर्शन न होने से ऐसा होता है गौतम | जैसे जब कोई मनुष्य स्वादिष्ट किन्तु अपथ्य भोजन करता हूँ तब अन्त में रोगी होकर दुःखी होता है । प्रवृत्ति तो उसकी स्वाद के सुख के लिये हुई थी परन्तु भविष्य में वह अपथ्य आधिक दुःख देगा इस सत्य का अनुभव उसे नहीं था । सत्यदर्शन की इस कमी से वह सुख की लालसा में दुःख पैदा कर गया । एक वीमार आदमी दुःस्वादु औषध लेता है । औषध से उसे सुखानुभव नहीं होता किन्तु जानता है कि इसका परिणाम अच्छा होगा, इस सत्यदर्शन से वह सुख की लालसा में दुःख भी उठा जाता है । अगर प्राणी सर्वहित का ध्यान रखे सर्वकाल के हितपर ध्यान रक्खे तो वह पाप न करे । पर इस सम्यक्त्व की कमी से प्राणी पाप करता है । गौतम - क्या यह सम्यक्त्व और संयम प्राप्त करना प्राणी के वश की बात है ? मैं- हां ! वश की बात है। जब तक प्राणी संज्ञी नहीं होता तब तक वह इस दिशा में प्रगति नहीं कर सकता, पर जब संक्षी होजाता है तब उसमें विवेक की मात्रा प्रगट होने लगती है, दूरदर्शिता आने लगती है, इसका उपयोग करना प्राणी के चश की बात है । इसलिये वह उत्तरदायी हैं । जह पदार्थों के समान वह कार्यकारण की परम्परा ही नहीं है किन्तु उसमें कर्तृत्व का, ज्ञान इच्छा प्रयत्न का सम्मिश्रण भी हुआ है ।
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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