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________________ ३३० ] महावीर का अन्तस्तल अपना कौन और पराया कौन ? अनन्त भवों में भ्रमण करते हुए सब अपने और पराये हुए हैं पर कोई अपना न रहा, तो राग और मिथ्यात्व आदि दूर हो जायँ । केशी - ठीक है, पर हृदय में एक ऐसी लता है जिसमें विषफल लगाही करते हैं उसे कैसे उखाड़ा जाय ? श्रमण जीवन भी उस लता को उखाड़ नहीं पाता । गौतम - श्रमणता का फल स्वर्गीय भोग नहीं लेकिन आत्मा से पैदा हुआ स्वतन्त्र अनंत सुख है । स्वर्गीय भोगों की तृष्णा छोड़ देने से वह लता उखड़ जाती है । केशी - फिर भी आत्मा में एक तरह की ज्वालाएँ उठा ही करती हैं। उन्हें कैसे शांत किया जाय । गौतम - महावीर प्रभुने इन कपाय ज्वालाओं को शान्त करने के लिये विशाल भूत का निर्माण किया है शील और तपों का विधान किया है उससे इन कपाय ज्वालाओं को शांत किया जासकता है । केशी - पर तप हो कैसे ? यह दुष्ट घोड़े के समान मन स्थिर रहे तब तो । गौतम - महावीर प्रभुने मनोनिग्रह करने के लिये जो धर्मशिक्षा दी है उससे मन वश में हो सकता है । केशी - लोक में इतने कुमार्ग है कि धर्म शिक्षा पाना और ठीक निर्णय करना अत्यन्त कठिन है । गौतम - महावीर प्रभुने मार्ग और कुमार्ग का इतने विस्तार से वर्णन किया है कि उसे सुन लेने के बाद मनुष्य राह भूल नहीं सकता । केशी - पर एक और बड़ी कठिनाई हैं । राह कुराह का ज्ञान हो भी जाय पर सुससे लाभ क्या ? आखिर जाना कहां है ?
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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