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________________ महावीर का अन्तस्तल प्रियदर्शना- मेरे ऊपर आपकी वात्सल्य दृष्टि जो पहिले थी वही फिर चाहती हूं । यह कहकर प्रियदर्शना मेरे पैर पकड़कर फचक फत्रककर रोने लगी । मैंने उसके सिरपर हाथ रखकर कहा- बेटी, मेरी वात्सल्य दृष्टि तो सारे संसार पर है, फिर तू तो प्रायश्चित्त करके पवित्र बन चुकी है। मुझे प्रभु कहने की कोई जरूरत नहीं है। मुझसे तू पिता ही कहाकर । प्रभु पिता से अधिक नहीं होता । ९२ - केशी गौतम संवाद ३२८] २२ चन्नी ९४५८ इतिहास संवत् मैडियाग्राम से मिथिला गया और वहां सत्ताइसवां वर्षावास पूर्णकर श्रावस्ती आया और कोष्टक चैत्य में ठहरा । इन्द्रभूति अपने शिष्यों सहित बहुत पहिले ही यहां आचुके थे और उने तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ के अनुयायी आचार्य केशी श्रमण को चर्चा में सन्तुष्ट कर मेरे अनुयायिओं में शामिल कर दिया था । इन्द्रभूति का यह प्रयत्न अत्यन्त महत्वपूर्ण है । इन्द्रभूति ने ही सारी घटना सुनाई उससे मालूम हुआ कि इन्द्रभूति स्वयं केशी के पास र्तिदुकोद्यान में गये थे । उस समय अन्य तीर्थवाले साधु और ग्रहस्थ भी थे। केशी ने गौतम का आदर किया । केशी ने गौतम से पूछा अभी तक तो धर्म चार रूप था पर आपके तीर्थंकर ने पांच रूप क्यों कर दिया ? ब्रह्मचर्य क्यों चढ़ा दिया ? गौतम ब्रह्मचर्य के बिना श्रमण संस्था ठीक तरह से कार्य नहीं कर सकती । ब्रह्मचर्य के भंग होने से जीवन पर तथा श्रमण संस्था पर दुष्प्रभाव पड़ता है पर लोग यह कहकर वच ..
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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