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________________ महावीर का अन्तस्तल [ २७१ पशुयोनि में तुम इतनी सहिष्णुता दिखा सके और इतना विकास कर सके पर अब मनुष्य भव में, इतने विवेकी होकर संयमी जीवन का थोड़ासा भी कष्ट तुम से सहा नहीं जाता ? मेरी बात पूरी होते न होते मेघ चिल्ला पड़ा - प्रभू !!! सकी दोनों आंखों से आसुओं की धारा बह रही थी । उसने मेरे पैरों पर गिरकर कहा - "क्षमा करो प्रभु! मेरी क्षुद्रता को क्षमा करो। मैं अपने अहंकार को लात मारता हूं, अपनी असहिष्णुता को धिक्कारता हूं अत्र में ऐसी भूल कभी न करूंगा । मैंने उसे धीरज बँधाया । मेघकुमार सच्चा श्रमण बनगया। मेरी मनोवैज्ञानिक चिकित्सा सफल हुई । . ७३ - नन्दीषण की दीक्षा ७ का ९४४४ इ. सं. अर्हत होने के बाद यह मेरा पहिला ही चातुर्मास था, पहिले वारह चौमासे की सफलता इस चौमासों में दिखाई दी । राजगृह नगर में सत्यश्रद्धा करनेवाले बहुत पैदा होगये हैं और मेरे धर्म का आकर्षण इतना बढ़गया है कि बड़े बड़े राजकुमार भी प्रवज्या लेने को अत्सुक होगये हैं । प्रव्रज्या का बोझ उठाने की पात्रता न होने पर भी वे प्रव्रज्या लेते हैं यहां तक कि रोकने पर भी नहीं रुकते । मैंने प्रारम्भ से ही नियम रक्खा है कि माता पिता और पत्नी की अनुमति लिये बिना किसी को प्रव्रज्या न दी जायगी फिर भी किसी न किसी तरह से लोग इस नियम की पूर्ति करके दीक्षित होजाते हैं । इतना आकर्षण, इतना प्रभाव एक तरह से है तो अच्छा, फिर भी मुझे इसपर नियन्त्रण रखना पड़ेगा क्योंकि मैं नहीं चाहता कि निर्वल लोग या जो भोगाकांक्षा को नहीं जीतपाते ऐसे लोग प्रवज्या ले ।
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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