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________________ २६ ] महत्ता बढ़ाने के लिये बड़े विचित्र ढंग से इसका उल्लेख किया है । यह अविश्वसनीय तो है ही, पर इसका पक्षपाती रंग भी साफ नजर में आता है । अन्तस्तल में से इस घटना को हटाया जासकता था फिर भी हर एक बात को किसी न किसी रूप में रखने की मेरी नीति थी इसलिये यह वात ऐसे ढंग से रखदी है कि वह निराधार नहीं रही । और पीछे से अच्छा निष्कर्ष भी निकाल दिया है । २६ - जैन शास्त्रों में अभिग्रह के नाम से कुछ अटपटी प्रतिज्ञाओं का काफी उल्लेख है । कटसहन को निमंत्रण देने के सिवाय इनका और कोई उपयोग नहीं मालूम होता । पर यह कारण इतना तुच्छ है कि अभिग्रह खटकने वाली बात बन जाती है। म. महावीर ने भी बड़ा ही कठिन अभिग्रह किया था। जिसका कोई खुलासा जैन शास्त्रों में नहीं है। पर इस अन्तस्तल में उस अभिग्रह को दासता विरोध के लिये इस प्रकार उपयोगी सिद्ध कर दिया है कि हास्यास्पद अभिग्रह म. महावीर की दीनबन्धुता में चार चांद लगा देता है । घटना शास्त्रोत है पर उसके चित्रण में सारा रंग ही बदल दिया है। बल्कि उसे बदलना न कहकर मौलिक रंग का प्रगटीकरण कहना ठीक होगा । ६३ वें प्रकरण में यह बात स्पष्ट है | ३०-६४ वें प्रकरण में जीवसिद्धि की हैं। जैन शास्त्रों में भी यह बात है फिर भी इस ग्रंथ में कुछ नये ढंग से युक्तियाँ दीगई हैं। ३१-६५ वां प्रकरण 'संघ की आवश्यकता' मानसिक विचार है जो महावीर जीवन के अनुकूल हैं, जो चारह वर्ष की तपस्याओं की उपयोगितापर हलकासा प्रकाश फेंकता हैं । ३२. ६६ वें प्रकरण में गुणस्थानों का विवेचन है जो शास्त्रोक्त है । पर काफी सरलता से बातें समझाई गई हैं। जैन
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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