SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 291
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महावीर का अन्तस्तल २६१ उसका फल भी उस त्यागसे महान होगा। मार्यपुत्र अवश्य होगा। मैं-अत्र मानला कि किसी मनुष्य ने ऊंचे स ऊंचे भोगों का त्याग कर दिया, इस लोक में जो भी समृद्धि मिल सकता है घह सब सुसने लोक कल्याण में लगादी. तब उसका बढ़ा हुआ फल यहां तो मिल नहीं सकता क्योंकि यहां मिलने लायक ऊंची से ऊंची सम्पत्ति का तो उसने त्याग कर दिया है, उससे ज्यादा फल मिलने के लिये तो कोई दूसरा लोक ही होना चाहिये । जो ऐसा लोक होगा वहीं देवगति है। मौर्यपुत्र- अहाहा! धन्य है प्रभु ! अश्रुतपूर्व हे प्रभु ऐसा तर्क ! ओपने कितनी जल्दी मेरी आंखें खोलदीं। औंधे को सीधा कर दिया। अब प्रभु मुझे आप अपना शिष्य समझें। अपित ने कहा- मार्यपुत्र को दिये गये उत्तर से मेरा भी समाधान होगया प्रभु । मैं सोचता था-देव भले ही होते होंगे परन्तु नरक के नारकी होते हों ऐसा नहीं मालूम होता। सुनते हैं कि देव कभी कभी यहां आते हैं परन्तु नारकी तो कभी आत हुए नहीं सुने गये। इसलिये देव गति को तो मैं किसी तरह मानलेता था पर नरक गति को नहीं मानता था । पर आपके अश्रुतपूर्व तर्क ने वह भी मनवा दिया । जो पुण्यफल यहां नहीं मिलसकता उसके लिये जैसे स्वर्ग की जरूरत है उसी प्रकार जो पापफल यहां नहीं मिलसकता उसके लिये नरक की जरूरत है । अब आप मुझे भी अपना शिष्य समझे। इतने में अचल भ्राता ने कहा-मुझे तो यह समम में नहीं आता कि पुण्यपाप आखिर है क्या पुण्य का फल अगर सुख है तो जगत में संकड़ों पुण्यात्मा मारे मारे फिरते हैं और पापफल अगर दुख है तो सैकड़ों पापी आराम से रहते हैं। तब
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy