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________________ महावीर का अन्तस्तक [२५९ का आत्मा मनुष्य कैसे बन सकता है । तय कर्म फलं के रूप में दुर्गति सुगति का क्या अर्थ है ? मैं क्या तुम यह समझते हो सुधर्म, कि यब का कण जब उदर में पचकर विष्टा बनकर मिट्टी होजायगा तब उससे फिर यव का दाना ही बनेगा, व्रीहि का दाना न बन सकेगा ? . . सुधर्म-मिट्टी तो जो चाहे वन सकती हैं पर यव के दाने से ब्राहे का दाना नहीं बन सकता। . मैं-आत्मा के बारे में भी ऐसा ही है सुधर्म, मनुष्य की योनि से पशु पैदा नहीं होता, पर जैसे यव और व्रीहि का झुपादान कारण मिट्टी है वह किसी भी धान्य रूप में परिणत होसकती है, उसी प्रकार मनुष्य शरीर से भी पशु पैदा नहीं होता, पर मनुष्य का आत्मा पशु के शरीर के निमित्न से पशु वन सकता है। यदि ऐसा न होता सुधर्म, तो संसार में मनुष्यों की कीटपंतगों की वनस्पतियों की संख्या सदा एक सरीखी रहती, ऋतु या युग के अनुसार इनमें न्यूनाधिकता न होती। . सुधर्म-अब मैं समझगया प्रभु ! अब आप मुझे अपना शिश्य समझे। : - इसके बाद मडिक ने कहा-संसार में ऐसी कोई जगह नहीं है जो खाली कही जा सके, तव जीव जहां भी कहीं रहेगा वह भौतिक परमाणुओं से बंधा ही रहेगा तत्र मोक्ष कैसे होगा? मैंने कहा-आसपास भौतिक परमाणुओं के रहने पर भी मोक्ष होसकता है भैडिक, अगर उनका असर आत्मा पर न पड़े तो आसपास सुनके रहने पर भी मोक्ष में कोई वाधा नहीं है । एक सराग मनुष्य जिस परिस्थिति में काफी दुःखी होसकता है उसी में वीतराग मनुष्य परमानन्द में लीन रह सकता है । जिस परिस्थिति में सराग बद्ध है उसी में वीतराग मुक्त है
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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