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________________ महावीर का अन्तस्तल [२५१ बदले में पूजा प्रतिष्ठा के प्रलोभन उपस्थित करे तो मैं से अस्वीकार कर दूंगा. और यही इस बात की कसौटी होगी कि मैं यशपूजा के व्यापार के लिये नहीं निकला हूं। अपने विषय में आवश्यक सत्य का उल्लेख करना आत्मश्लाघा नहीं है । फिर भी जो यश पूजा या आत्मश्लाघा का प्रदर्शन होगा भी, वह केवल इसलिये कि साधारण जन सत्य की तरफ आकृष्ट हो । ज्ञानियों को तो आर्कषण के लिये ज्ञान ही पर्याप्त है पर साधारण जनता बाहरी प्रभाव यश प्रतिष्ठा आदि से ही आकृष्ट होती है । जब मुझे जन साधारण का भी भला करना है तब इन सब बातों को लेना होगा | निस्वार्थभाव से यह सब मुझे करना ही चाहिये । ree लिये मेरी निम्नलिखित योजना है । 1 १- पहिले कुछ विद्वानों को अपना शिष्य बनाऊं । विद्वानों के शिष्य होने से केवल प्रभाव ही न बढ़ेगा किन्तु सत्य को पाने से अनका अद्धार भी होगा और प्रचार में सुविधा भी होगी। २- तीर्थ में शामिल होनेवालों का व्यवस्थित संगठन करूं ? और चार संघ की संघटना करूं । ३- ज्ञान का प्रचार मैं करूं पर संगठन में लाने का काम शिष्यों को साँएँ । क्योंकि इस विषय में मेरी अपेक्षा मेरे शिष्यों का असर अधिक पड़ेगा । जगत् की मनोवृत्ति ही ऐसी है । ४- आने जाने में प्रवचन करने में कुछ प्रभावकता का परिचय दूं जिससे जन साधारण पर मेरे तीर्थ की छाप पड़े । क्योंकि जन साधारण तक अपना सन्देश पहुँचाने के लिये जैसे मैंने जनसाधारण की बोली- अर्धमागधी को अपनाया उसी तरह जनसाधारण की मनोवृत्ति के अनुसार प्रभावकता के
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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