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________________ महावीर का मन्तस्तल [२३३ लिये निकलने लगा । और इसी तरह आज अभिग्रह पूरा हागया । आज जब मैं धनावह संठ को हवेली के पिछवाहे भाग से जा रहा था तब मेरे कान में आवाज आई-प्रभु ! यहां दया करो प्रभु ! , मैंने देखा एक अत्यन्त रूपवती युवति मेरी तरफ देखरही है । उसका सिर मुड़ा है, वस्त्र मलिन है. परों में बेड़ी पड़ी है इसलिये चल फिर नहीं सकती, हाथ में टूटा सा सृपा है और उसमें है कुलमाप ( दाल के छिलकों का भोजन)। मैं रुका। मेरे रुकते ही उसने बड़ी आई वाणी से कहा-प्रभु, मं दुर्भाग्य से सताई हुई एक राजकुमारी हूं | आज दाली से भी बुरी अवस्था में हूं । खाने को यह कुल्माप मुझे मिला है, जो आप के योग्य तो नहीं है पर आप अगर इल अभागिनी पर दया कर सकें तो इसे ग्रहण करें। कहते कहते उसकी आंखों में आंसु आगये। मेरा अभिग्रह पुरा हुआ, मैं करतल पर वह भोजन लेने लगा। . मेरी ओर लोगों की दृष्टि थी ही। थोड़ी देर में यहां भीड़ इकट्ठी होगई । इतने में घनावह सेठ लुहार को लेकर आया। मुझे देखते ही वह मेरे पैरों लगा। उसने कहा-मैं चन्दना को अपनी बेटी के समान मानता था। पर मेरी पत्नी को भरम हुआ कि मैं इसे पत्नी बनाना चाहता हूँ। एक दिन किसी दास दासी के निकट में न रहने से इसने पिता सममकर मेरे पैर धोदिये । पैर धोते समय इसके केश लटककर जमीन छुने लगे इसलिये मैने हाथ से इसकी पीठ पर कर दिये । मेरी मूद पत्नी नेदेखा और इसी बात पर सन्देह किया और मुझसे छिपाकर बेटी चन्दना का सिर मुड़ा दिया, बेड़ी डाल दी, और पिछवाद ।
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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