SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 254
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२४ ] महावीर का अन्तस्तल ६१ - तप त्याग का प्रभाव १७ चिंगा १४४२ इतिहास संवत् । अनेक गावों में भ्रमण करता हुआ इस सुशुमार पुर में आया हूं । यद्यपि यह अनुभव मैं जन्मसे ही कर रहा हूं कि मनुष्य कुलजाति का, वैभव का और शासन के अधिकार का जितना सन्मान करता है उतना तपत्याग का नहीं । कुलजाति जगत की कोई भलाई नहीं होती, केवल दूसरों का अपमान होता है, मद से आत्मा का पतन भी होता है। वैभव से जीवन शुद्धि का कोई सम्बन्ध नहीं, बल्कि एक के पास अधिक सम्पत्ति पहुँच जाने से दूसरों के पास सम्पत्ति की कभी पड़ती है, विलास से धनी का भी प्रतन होता है । अधिकार का मद तो सबसे बड़ा मद है, इससे मनुष्य अत्यन्त विलासी घमंडी अविवेकी और अत्याचारी होजाता है । मैं कुलजाति की महत्ता तोड़ना चाहता हूं । अपरिग्रह की ओर जगत को लेजाना चाहता हूं और चाहता हूं कि अधिकार न्याय की व्यवस्था के लिये ही हो । अधिकारी सेवक के रूप में जनता के सामने आये, जनता का देवता बनकर नहीं । पर यह बात तभी होसकती है जब जनता गुणपूजक, त्यागपूजक हो । अभी तक जनता कुल की, धन की, अधिकार की पूजा करती रही है; इसलिये सच्चा त्याग तप दुर्लभ होरहा है। इसका परिणाम यह हुआ है कि जगत में जन्म मरण आदि का जितना प्राकृतिक दुःख है उससे असख्यगुणा दुःख मनुष्य के पल्ले पड़गया हे । वैभव और अधिकार की महत्ता ने मनुष्य के मनपर ऐसी छाप मारी है कि जो लोग तप-त्याग भी करते हैं वह तप-त्याग का आनन्द लेने के लिये नहीं, जगत की सेवा के लिये भी नहीं, किन्तु वैभव-विलास के रूप में उसका फल पाने के लिये । मैं ऐसे तप को कुतप मानता हूं जिसमें आत्मशुद्धि नहीं, सिर्फ उसी बिलास को हजारों गुणं रूप में पाने की लालसा है,
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy