SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 248
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१८] महावार का अन्तस्तल ... ... .. . . दुःख का भोक्ता जीव है। अजीव-जो जीव से भिन्न है वह अजीव है । यह शरीर अजीव है जो जीवके साथ बँधा हुआ या जीव जिस के साथ बंधा हुआ है। आश्रव-जो दुःख के श्रोत हैं व आश्रव हैं। मिथ्यात्व असंयम आदि के कारण प्राणो दुःखी होता है. ये ही आश्रव हैं। बन्ध-आश्रवा के कारण प्राणो दुःखदायक परिस्थितियों से बँध जाता है, जिनका असे फल भोगना पड़ता है वह बंध है। संवर-आश्रवों को रोक देना. अज्ञान . असंयम आदि दूर कर देना संवर ह । संवर होजाने से नये बन्ध नहीं हो पाते। निर्जग जो कर्म बंध चुके है वे फल देकर झइजाँय या । तपस्या से पहिले ही झड़ा दिये जाय, यह निर्जरा है । मोक्ष-बंधी हुई चीज झड़ती तो जरूर हैं, कर्म भी झड़ते है पर मड़ते झरत फल दे जाते हैं। अगर झुसको सहन कर लिया. जाय तब तो ठीक, नहीं तो फल भोगने में जो अशांति आदि होती है उससे फिर बन्ध होता है, इस प्रकार अनन्त परम्परा चलती रहती है । इसलिये आवश्यकता इस बात की है कि कर्म का फल महन कर लिया जाय और फिर इसप्रकार निर्लिप्त रहा जाय कि आगे बन्ध न हो । इलप्रकार धीरे धीरे ऐसी अवस्था पदा होसकती है जब मनुष्य दुःखों से मुक्त होस. कता है, वही मोक्ष है। इन सात तत्वों का पक्का विश्वास हो सम्यदर्शन या सम्यक्त्व है, इन सात तत्वों का ठीक ज्ञान ही वास्तव में सम्यज्ञान है । इन तत्वों से बाहर का ज्ञान ठीक रहे या न रहे उससे सम्यग्ज्ञान में कोई बाधा नहीं आतो । इन तत्वों का जिन्हें पूरा अनुभव होजाता है, जो मुक्तावस्था तक का अनुभव करने लगते
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy