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________________ १८०] महावीर का अन्तस्तल विचार कर ब्रह्मचर्य को भी एक आवश्यक रत मानलिया है। इसका अणु रूप होगा यह कि गृही मनुष्य व्यभिचार से। मुक्त रहे। इसप्रकार आहंसा सत्य अचौर्य ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पांच मूलरत मानना उचित है। साधुओं के लिये इन्हें महारत कहना होगा और गृहस्थों के लिये अणुब्रत ! अन्य सब उपरत इन्हीं पांच व्रतों के सहायक होंगे। . . ४७-बाईस परिषह ११ धनी ९४४. ई. सं. . एक वार फिर म्लेच्छ देशों में भ्रमण करके वहां के अनुभव प्राप्त करने का प्रयत्न किया । इसलिये वज्रभूमि, शुद्ध भूमि और लाट देशों में घूमा। पर ऐसा मालूम हुआ कि अभी यह भूमि धर्म प्रचार के योग्य नहीं है। यहां के लोग घोर हिंसक, अकारण द्वेषी और निर्दय हैं । यह सोचकर मैंने यहां अपना नवमा चातुर्मास भी बिताया कि सम्भव है मेरी तपस्या का इनपर कुछ प्रभाव पड़े। पर कुछ भी प्रभाव न पड़ा। यहां के लोग मेरे पीछे कुत्ते छोड़ देते थे, कभी पत्थर मारते थे। गालियाँ देना तो मामूली बात थी । गोशाल तो काफी उद्विग्न होगया । सम्भवतः वह चला जाता, पर इस लज्जा के कारण नहीं गया कि एक बार जाकर असे लौटना पड़ा था। मैंने इस चातुर्मास में इसी बात का हिसाब लगाया कि कितनी तरह की बाधाएँ साधुको जीतना चाहिये । अधिकांश वाधाएँ तो मेरे जीवन में ही भोगने में आगई और मैंने उन्हें जीता, कुछ निकट सम्पर्क में आये हुए लोगों में देखने को मिली। मैं समझता हूं कि अगर मनुष्य इन्हें जीतने की शक्ति न रक्खें तो आजकल जनसेवा के मार्ग में आगे बढ़ना, और पूरी तरह
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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