SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 198
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६८] महावीर का अन्तस्तल . .... ......... मैं- एक ही बात अवश्य है फिर भी हिंसा में बहुत अन्तर है। मुर्गी को मारने पर जितनी उसे वेदना होती है उतनी अंडे को नहीं। क्योंकि अंडे का चैतन्य उतना जाग्रत नहीं हुआ है। जब तक अंगोपांग नहीं बनते तब तक चैतन्य पूरा प्रगट नहीं होता इसलिये सुख दुःख संवेदन भी कम होता है । तदनुसार घातक के भावों पर भी प्रभाव पड़ता है । यद्यपि उचित तो यही है कि तुम न मुर्गी खाओ, न अंडा खाओ, मांस विरत को दोनों का त्याग उचित है पर अगर कभी अंडा खालिया तो इससे मुर्गी भी खालेना चाहिये, यह विचार मिथ्या है। इसके बाद भद्रक ने दृढ़ प्रतिज्ञा ली कि न मैं कभी मुर्गी खाऊंगा न अंडा। उसके जाने पर ध्यान लगाने पर मैं सोचने लगा कि जीवस- . मास वर्णन में मुर्गी और अंडे के बीच में कुछ भेद बताना जरूरी है। किसी प्राणी की एक वह अवस्था जिसमें झुलके अंगोपांगों का निर्माण नहीं हुआ है यहां तक कि उनके कोई चिन्ह भी प्रगट नहीं हुए है, दूसरी वह अवस्था जिसमें अंगोपांग वनजाने से वह प्राणी के आकार में आगया है, पर्याप्त अन्तर है। यद्यपि प्राणी दोनों हैं फिर भी जब तक अंगोपांग बनने नहीं लगते तव तक प्राणीपन पर्याप्त नहीं है इसलिये उन्हें अपर्याप्त करना चाहिये, वाद में पर्याप्त । इस प्रकार सात प्रकार के प्राणियों के दो दो भेद होगये | सात पर्याप्त, सात अपर्याप्त | अपर्याप्त की अपेक्षा पर्याप्त के घात में हिंसा बहुत आधिक है। इस प्रकार चौदह जीवसमासों के बनने से हिंसा अहिंसा का विचार और भी अधिक व्यवस्थित और व्यवहार्य बनगया है।
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy