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________________ १०२] महावीर का अन्तस्तल परिचित की महत्ता किसी तरह बढ़ न जाय। अगर बढ़ भी जाय तो उस महत्ता को ये किसी तरह स्वीकार न करेंगे बल्कि झूठे सच्चे बहानों से उसकी घटाने की चेष्टा करेंगे ब्रिन्दा करेंगे । सारी शक्ति लगाकर भी अगर वे महत्ता न घटा सकेंगे तो अन्तमें उस महत्ता का श्रेय लुटने की कोशिश करेंगे, उसके निर्माण में अपने सहयोग के गीत गाते फिरेंगे, इस तरह तर्थि रचना और जन जागृति के काम म हर तरह अडंगे डालेंगे । परिचितों के कार्य होते हैं विकास में बाधा डालना, निन्दा करना, हितैषी वनकर साहस नष्ट करता और सफलता में सारा या आर्धक स अधिक श्रेय लूट लेना । I मुझे कुलपति से कुछ सीखना नहीं है, तीर्थकर बनने वाला व्यक्ति श्रुतिस्मृति के बलपर ज्ञान प्राप्त नहीं करता, वह इस प्रकृति को इस संसार को ही बड़ा वेद मानता है । मैं उसी का अध्ययन कर रहा हूं। चार मास एकान्त में निराकुलता से रहकर मैं यही कार्य यहां करना चाहता था पर अब यहां न रहूंगा 1 ! इस घटना ने मुझे बहुतसी बातें सिखाई हैं । पहिली बात यह है कि पूर्व परिचितों के सम्पर्क से न रहना । इससे साधना में बाधा ही नहीं पड़ती किन्तु परिचितों का अधःपतन भी होता है । दूसरी बात यह कि जहां क्लेश हो वहां न रहना । भले ही वह क्लेश चाहे शब्दों से प्रगट हो चाहे उपेक्षा पूर्ण चेष्टाओं से । इससे उन लोगों को दुःख तो होता ही है साथ ही सत्य का, धर्म का अपमान भी होता है, और उन्हें पापी बनना पड़ता है । 3 तीसरी बात यह कि अपात्र का विनय न करना । अपात्र
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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