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________________ महावीर का अन्तस्तल 1९३ और उसमें न जाने कितने नीच और मूर्ख लोगों से आप पर संकट आयेंगे ऐसी अवस्था में मुझे पारिपार्श्वक बनान की दया of कीजिये, इससे आपको भी सुविधा होगी, बहगनी को भी कुछ सन्तोप होगा और मेरा जीवन भी सफल होगा। मैंने कहा- इन्द्रगोप, क्या तुम यह सममत हो कि हम तरह पहरेदारों के भरोसे कोई मनुष्य निर्भय, कष्टसहिष्णु और जिन या अर्हत् बन सकता है ? ऐसा होता तो घर में ही क्या बुरा था? इन्द्रगोप चुप होगया। फिर सोचते सोचते बोलाकुमार, एक गमार आप को इस तरह रस्सा माग्ने दाड़े इसमें आपकी साधना को क्या बल मिलेगा यह तो में अज्ञानी क्या समा? पर यह समझता हूं कि जो आप पर हाथ उठायगा उसको नरक के सिवाय और कहीं जगह न मिलेगी। ऐसे लोगों को अगर आपका परिचय दे दिया जाय ता उनका अधःपतन रोका जासकता है। मैं- नहीं रोका जासकता। राजकुमारपन के परिचय देने से साधु का विनय न होगा, राजकुमार का विनय या आंतक हागा । ऐसी आतंकितता पशुता का चिह्न है देवत्व का नंहा । इन्द्रगोप फिर चुप रहा और कुछ सोचकर बोला-पर कुमार, जंब इन गमारों को यह मालूम होगा कि साधु के वेप में चोर नहीं राजकुमार तक रहते हैं तब इस तरह साधु का अपमान करने का उनका दुःसाहस नष्ट होजायगा। मैंने कहा-नहीं ! एक भ्रम पैदा होजायगा | जनता यह समझने लगेगी कि राजकुमार साधुओं के पास तो पारिपार्श्वक रहा करते हैं जिनके पास पारिपार्श्वक नहीं हैं वे चोर हैं। इस कारण बहुत से सच्चे साधुओं का अपमान होने लगेगा। जो हिंसा
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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