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________________ महावी. क अन्तस्ल . मैं प्रासाद के बाहर निकला । मुझे देखते ही हजागे कंठ चिल्लाये-वर्धमान कुमार की जयं । मैं शिविका में वठा । हजारों, आदमा अंगे और हजारों आदमी पीछे चल रहे थे । गवाक्षों से सीमन्तिनियाँ लाजा बरसा रही थीं । बस्ती के बाहर जय जुलूस पहुंचा तब मेरी हाटे पथ से दूर खड़े हुए एक मानव समूह पर - पड़ी। वे चांडाल कुटुम्ब थे। शिवकेशी की घटना के बाद मेरे. • विषय में उनका आदर काफी बढ़ गया था। चाहते थे कि जुलूस में आकर मेरी शिधिको पर लाजा बरसा जायें, पर यह उनके लिये आग में कूदने से भी भयंकर था । इसलिए चांडालवधुआंने अपन अञ्चल में रक्खे हुए लाजा मेरी ओर लक्ष्य करके अपने हा आगे बरसा लिये थे। यह देखते ही मेगा दहय 'भर आया । जिन आंसुओं को मैं देवी और भाभी के आगे रोक सका. था वे अ न रुके, उन्हें पोंछकर मैंने • अपना उत्तरयि पवित्र किया । ".क्षणभर को इच्छा हुई कि शिविका में से उतर कर मैं, च डालवधुओं को सान्त्वना दे आऊं, पर पीछे यह सोचकर रुक. गया,कि इससे जनता में इतना क्षेोम फैलेगा कि रास्ते से दूर ... खड़े होने के अपराध में भी जनता उन चांडालों को मेरे जाने के बाद पति डालेगी, इसलिए रुक गया। ज्ञातखंड पहुंचने पर मैं शिविका से उतरा। जनता एक समूह में खड़ी होगई । मैंने सबको संबोधन करते हुए कहा-अव मैं आप लोगों से विदा लेता हूं। इसलिए नहीं कि आप लोगों से कौटुम्बिकता तोड़ना चाहता हूं, किन्तु इसलिए कि मैं वह · साधना कर सकूँ जिससे आप लोगों के समान मनुष्य मात्र से • या प्राणिमात्र से एक सरीखी कौटुम्धिकता रख सई। जिस तृष्णा और अहंकार ने आत्मा क भीतर भरे हुए अनन्त जुख के
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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