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________________ महावीर का अन्तस्तल [८३ प्रातः काल होते ही जब मने राजपथ पर नजर डाली तब मालूम हुआ कि आज सवेरे से ही काफी भीड़ है। आसपास के गांवों की जनता सधेरे से ही इकट्ठी हो रही है . विचारी भोली जनता नहीं समझती कि मैं क्या करने जारहा हूँ । जनता सिर्फ इस कुतूहलस इकट्ठी होरहो है कि एक गजकुमार वैभव को लात मारकर जारहा है । मूल्य त्याा के उद्देश का नहीं है, राजकुमारपन का है।। . प्रासाद के भी भीतर बड़ी चहलपहल थी, हां ! उल्लास नहीं था। सुगन्धित चूण से मेरा उबटन किया गया. हेमन्त ऋतु हान से गर्म जल से स्नान कराया गया । भोजनमें व्यसनों की भरमार थी, सर कुछ था, पर हास्य क.-विनोद की सब जगह कमी थी। ... भोजन के बाद मेरा बहुतसा समय गरीबों को दान देने में गया, तब तक राजपथ पर दोनों ओर सहस्रों नरनारियों की भीड़ इकट्टी होगई। भाई साहब ने शिविका. को जिस तरह सजाया था वैसी सजावट मेरे विवाह के समय भी नहीं की गई थी। फिर भी ऐसा मालूम होता था कि बहुत कुछ सजकर भी शिविका हँस नहीं रही है। दिन का तीसरा. पहर बीता जारहा था, इसलिये मुझे विदा लेने के लिये शीघ्रता करना पड़ी। पुरुष वर्ग तो बातखंड तक साथ चलने वाला था ! दासी परिजनों से भाभी से और देवी से विदा लेना थी। सब ने साधु नयनों से विदा किया, सब आंसुओं से मेरे पैर धोती. गई; और अंचल से पोचती गई। भाभी ने मांस भरकर और मेरी भुजापर अपना हाथ रखकर कहा-देवर, हम लोग क्षत्राणियाँ हैं, जन्म से ही अपने भाग्य में यह लिखा लाई हैं कि मौत के मुंह में जाते समय अपने पति .: पिता पुत्र भाई और देवर की आरती उतारा करें आर विना
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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