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________________ ७२ 1 "w.mmm... .. महावीर का अन्तस्तल ... . . स्वयं तो नहीं बढ़सकती, खासकर अभी तो नहीं बढ़ सकती. पर मुझे अनुमति देकर जगत्कल्याण करानेका पुण्य ले सकती है। उनका यह त्याग सहर्ष हो या विचार पूर्वक हो तो मुझे तो सन्तोप रहेगा ही, साथ ही उनका जीवन भी विकसित होगा। अगर उनकी इच्छा क विना मैं उन्हें छोड़कर चलदं तो इसमें उनका त्याग न होगा, लुटजाना होगा, यह तो एक तरह का वैधव्य होगा। मुझे स्वेच्छासे अनुमतिदेकर वे महासती बनसकती है, त्यागमूर्ति वनसकता है, आध्यात्मिक दृष्टिले परम सौभाग्यवती बनसकती हैं। पर यह हो कैसे ? जब तक मेरी वात विवेक पूर्वक उनके गले न उतर जाय तब तक ठाक पीटकर वैद्यराज बनाने से क्या होगा? पिछले कुछ दिनों से मैं इसप्रकार बड़ी उलझन में पड़ा हूं। १६ - देवी की अनुमति .. ... ४ सत्येशा ९४३२ इ. सं. . . . इधर कुछ दिनों से जो उलझन थी. वह अकस्मात् ही आज सुलझ गई। आज भोजन के अपरान्त मैं अपने कक्ष में बैठा था, दवा भी मेरे कक्ष में आगई थीं, इधर उधर की चचा. चलरही थी पर निष्क्रमण की अनुमति मांगने लायक कोई प्रक रण नहीं आरहा था । इतने में दासी ने खबर दी कि बाहर कुछ लोग बैठ हैं और आप से मिलना चाहते हैं। ... मैं-कौन हैं ? गृहस्थ हैं या सन्यासी? . . : .. दाली- क्या बताऊं! कुछ समझ में नहीं आता । साधा रण गृहस्थ तो हैं नहीं, पर साधु सनवासियों सरीखे भी नहीं.. मालूम होते। पर आदमी कुछ ऊंची श्रगो के मालूम होते हैं । ऐसे आदमी अपने यहां आये हुए कभी नहीं देखे गये। ..... - मैं-अच्छा ता उन्हें भेजदे। ,
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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