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________________ २४ वाल ब्रह्मचारी गृहस्थ रह, देखा जग का निसारत्व ॥ १६० वीर - विरागी ने तन-मन मगसिर कृष्णा दशमी के दिन, राज-पाट वैभव ठुकरा कर । से, दिगम्वरत्व का दीप जलाकर ॥ १६१ केशों, का लुचन कर डाला । कल्याणक, पर लाये अनुमोदन माला || ॐ नम सिद्धेभ्य पूर्वक लौकान्तिक दीक्षा १६२ ज्ञातृखड नामक अरण्य की ओर, चली चन्द्रप्रभा पालकी । मानव सुरगण द्वारा वाहित, भावलिङ्ग मुनि वीर वाल की ॥ १६३ आत्म स्वभाव साधना वल से, बारह वर्ष किया तप भारी । अठ्ठाईस मूल गुण पालन करते, चतुर ज्ञान के धारी ॥ उपसर्ग एवं परीषह विजयी महाश्रमण महावीर १६४ मासों के उपवासी प्रभु के, आहारों की सविधि आकड़ी । परीपहो की उपसर्गों की, सम सहिष्णुता बहुत कडी ॥ १६५ चले उसी वन वीर जहाँ वह, सर्प चडकौशिक रहता था । जहरीली फुकारो से जो, दावानल वनकर दहता था | t
SR No.010408
Book TitleMahavira Chitra Shataka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalkumar Shastri, Fulchand
PublisherBhikamsen Ratanlal Jain
Publication Year
Total Pages321
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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