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________________ निवेदन के पृष्ठ मानवता का चरमोत्कर्ष, पौरुष की सुष्ठ पराकाष्ठा, व्यक्तित्व की सम्पूर्ण अभिव्यक्ति अथवा चैतन्य आत्मा के स्वरूप का अन्तिम निखार जव अलौकिकता के सूक्ष्मतम केन्द्रविन्दु पर पहुँच कर परमात्मा का रूप धारण कर लेता है तब तीनो लोको के जीव मात्र उस कृतकृत्य सत्व के पादार-विन्दो मे आत्म समर्पण करने के लिये लालायित हो उठते हैं। तथा कथित दिव्य ऐश्वर्य-वैभव-विभूतियाँ ही नहीं, बल्कि उत्कृष्ट से उत्कृष्ट माहात्म्य भी हतप्रभ होकर ऐसे चिच्चमत्कारमयी समयसार से आलोक की याचना करता है । केवल आत्मा और परमात्मा की सुदृढ भूमिका पर ही आधारित यह सम्पूर्ण जैन-शासन (आत्मधर्म) रत्नत्रय मण्डित इन चैतन्य-सर्वज्ञ-कर्मण्य वीतरागी महाश्रमणो को 'अरिहत' नाम की महा मगलमयी सज्ञा से सम्बोधित करके अपने को धन्य मानता है। परम पूज्य पच परमेष्ठी के आदि पद पर प्रतिष्ठित ये अनादि सनातन पुरुष प्राणिमात्र के कल्याण के लिये अहिंसा, प्रेम, विश्व बन्धुत्व, सर्वोदय और वीतरागता परक व्यावहारिक उपदेश तथा पर से सर्वथा निरपेक्ष स्वाभाविक स्वावलम्बन परक निश्चय धर्म का उपदेश स्वय "सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्य" के ज्वलत और जीवित आदर्श प्रतीक वनकर देते हैं । नही-नही, भव्य जीवो के परम सौभाग्य से ही इन युगात्माओ के द्वारा सर्वाङ्गमुखी, निरक्षरी, अनेकान्ता वाग्गंगा दिव्यध्वनि के कलकल निनाद पूर्वक प्रवाहित होती रहती है, जिसमे विवेकी जन-हस अद्यापि किलोलें करते हुए स्वपर कल्याणकारी मुक्ति पथ पर गमन करते है।
SR No.010408
Book TitleMahavira Chitra Shataka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalkumar Shastri, Fulchand
PublisherBhikamsen Ratanlal Jain
Publication Year
Total Pages321
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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