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________________ 1 १२७ श्रुत सागर मुनि से दीक्षित हो, यथाकाल रत्नत्तय तप से धर्म और पुण्यो के सौख्य पूर्ण आयुष्य १६ निर्ग्रन्थ हुआ प्रशस्त, उनके द्वारा शिव पथ हुआ ।। 1 १२८ फल से प्राप्त हुआ तव स्वर्ग दशम । , अन्त मे हुये चक्रवर्ती उत्तम ॥ चक्रवर्ती प्रियमित्रकुमार १२६ पुण्डरीकणी है विदेह मे, उसमे ही प्रियमित्रकुमार । सहस छियाणव राजरानियो, के थे चक्रवर्ति भरतार ॥ १३० कोटि अठारह अश्व और गज, थे जिनके चौरासी लाख मुकुटबद्ध राजा सेवक थे, सहस तीस द्वय आगम साख ॥ १३१ एक समय यह चक्रवर्ति नृप, पहुँचे वैदेही जिन क्षेमकर क्षेमकर के, पावन - पुण्य १३२ ससार देह भोगो से होकर, वीतराग स्वर्ग द्वादशम चक्रवति ने, पाया युवराज नन्द १३३ आयु पूर्ण कर चय कर आये, छलाकार 1 नन्दिवर्द्धनम् वीरवती दम्पति, के समशरण चरण मे C तप उसके पावन नगर मे थे । थे ॥ घर धारा । द्वारा ॥ मे । मे ॥
SR No.010408
Book TitleMahavira Chitra Shataka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalkumar Shastri, Fulchand
PublisherBhikamsen Ratanlal Jain
Publication Year
Total Pages321
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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