SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 128
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०७ की प्राप्ति भी सभाव्य है और सास्कृतिक सकट से मुक्ति भी। भ० महावीर ने अपने राजसी जीवन में और उसके चारो __ ओर जो अनत वैभव की रगीनी थी उससे यह अनुभव किया कि आवश्यकता से अधिक संग्रह करना पाप है, सामाजिक अपराध है, अभिवंचना है । आनन्द का रास्ता है अपनी इच्छाओं को कम करो। आवश्यकता से अधिक संग्रह न करो। क्योकि हमारे पास जो अनावश्यक संग्रह है उसकी उपयोगिता कही और है । कही ऐसा प्राणिवर्ग है जो इस सामग्री से वचित है । अभाव से सतप्त है । अतः हमें उस अनावश्यक सामग्री को सग्रहीत कर रखना उचित नही । यह अपने प्रति ही नही, समाज के प्रति भी छलना है, धोखा है, अपराध है। अपरिग्रह दर्शन का विचार करो। उसका मूल मन्तव्य क्या है ? किसी के प्रति ममत्व, आसक्ति, मूर्छा न रखना । वस्तु के प्रति नही, व्यक्ति के प्रति भी नही । स्वय की देह के प्रति भी नहीं । वस्तु के प्रति ममता न होने पर अनावश्यक सामग्री का तो संचय करेंगे ही नही। आवश्यक सामग्री भी दूसरो के लिए विजित करेंगे। आज के संकट काल मे जो सग्रह वृत्ति (hoarding) और तज्जन्य व्यावसायिक लाभ वृत्ति पनपी है उससे मुक्त हम तव तक नहीं हो सकते जव तक अपरिग्रह दर्शन को आत्मसात् न कर लिया जावे । व्यक्ति के प्रति भी ममता न हो। इसका दार्शनिक पहलू केवल इतना है कि अपने 'स्वजनों' तक ही न सोचे । परिवार के सदस्यों की ही रक्षा न करें वरन् उसका दृष्टिकोण समस्त मानवता के हित की ओर अग्रसर हो । आज प्रशासन और अन्य क्षेत्रों में जो अनैतिकता व्यवहृत है उसके मूल मे अपनो के प्रति ममता ही विशेष रूप से प्रेरक कारण है। इसका अर्थ यह नही कि व्यक्ति पारिवारिक दायित्व से मुक्त हो जावे । इसका ध्वनित अर्थ केवल इतना ही है कि व्यक्ति स्व के दायरे से निकल कर
SR No.010408
Book TitleMahavira Chitra Shataka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalkumar Shastri, Fulchand
PublisherBhikamsen Ratanlal Jain
Publication Year
Total Pages321
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy