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________________ ५४] महावीर नरित्र। लेना चाहिये उस तरह नहीं लेता तो वह मनुष्य पीछसे अपनी स्त्रियोंके मुखरूप दर्पणमें कलंकके प्रतिविम्बको देखता है ॥ ७० ॥ .. यदि तुम्हारेमें उसको बंधुबुद्धि है, वह यदि तुमको अपना बंधु समझता है तो एक ऐसा दृत क्यों नहीं भेजता है कि "मुझसे आपका . अपराध हुआ है, अब मैं आपके सामने भयसे हाथ जोड़ता है, फिर भी हे आर्य : आप मुझपर कोप क्यों करते हैं: ॥ ७ ॥ आप मनस्त्रियोंके अधीश्वर हैं । आपके पराक्रमका समय यही है। मैंने जो कहा है आप उसपर विचार करें, और विचार करकं वहीं करें; क्योंकि आपकी मुनाओंके योग्य यही है और कुछ नहीं ॥७२॥ विश्वनंदीने समझा कि मंत्रीक ये वचन नीति जाननेवालों और पराक्रमशालियोंकेलिये मनोन हैं । इसलिये किसी तरहका विलंब न कर शीघ्र ही विशाम्खनंदीके विलकी तरफ उसने । उप्रकोपसे प्रयाण किया ।। ७३ ॥ युद्धकं आनस जो हर्षित हो उठी थी उस सेनाको कुछ दूर ही छोड़कर अभटोंके साथ २ चुवराज-सिंह दुर्ग देखनेक मिपसे; किंतु मनमें युद्धको रखकर शीन' ही आगे गया ।। ७४ ॥ और उस अनुपम कोटक पास पहुंच गया, जिसकी खाई अलभ्य थी, निक चारो तरफ यंत्र लगे हुए थे, तथा प्रसिद्धर वीरोंके झुंड जिसकी रक्षा कर रहे थे, जिसके बहुतसे स्थानोंपर सफेद झंडे उड़ रहे थे, जिनसे ऐसा मालूम होता था मानों वह दुर्ग झंडेरूपी पंखोंसे दिशाओंकी हवा कर रहा हो । ७५ ॥ जब विश्वनंदी जरासी देरमें खाईको पार करके कोटको मी . लांघ गया और शत्रुसैन्यके साथ २ इसका भी तीक्ष्ण खग भग्न हो गया तब उसने झटसे पत्थरका बना हुआ एक खंभा उखाड़ लिया.
SR No.010407
Book TitleMahavira Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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