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________________ ४८ ] महावीर चरित्र । लोग शत्रुओंके समान हो जाते हैं || २० || लक्ष्मणाने महाराज (विशाभूखति ) से एकांत में आग्रहपूर्वक, क्योंकि वह उसका वहम था, यह कहा कि हे राजन् ! मेरे जीवनसे यदि आपको कुछ भी प्रयोजन हो तो वह वन मेरे पुत्रको दे दीजिये ॥ ३१ ॥ राजा किंकर्तव्यतासे व्याकुल हो गया । उसने शीघ्र ही एकांत में मंत्रिवर्गको बुलाकर सम्पूर्ण वृत्तांत कहा, और उपका उत्तर भी पूछा ॥ ३२ ॥ प्रशस्त मंत्रिगणने कीर्तिसे कहने के लिये प्रेरणा की। उसने समय दृष्टिसे ही राजाकी नीतिहीन चित्तवृत्तिको जानकर इप प्रकारसे वचन कहना शुरू किया ॥ ३३ ॥ "हे भूवल्लभ ! विश्वनंदीने मन वचन और किवासे कमी भी आपका अपराध नहीं किया है। जिसकी को कोई भी नहीं जान सकता ऐसे गुप्तचरोंके द्वारा और खुद मैंने भी बहुत बार मित्रका उसकी परीक्षा की है ३४ ॥ उनको समस्त मुख्य लोक नमस्कार करते हैं। उसके पराक्राका का नीति-संवाद होता है । हे राजन् ! यदि फिर भी आपको उसके जीने की इच्छा है तो कहिये कि समस्त धरातल पर असाध्य क्या है ? || ३६ || आपके सहोदरका प्रिय पुत्र आपसे ऐसी अनुकूलता रखता है जैसी कोई नहीं रखता हो; परंतु फिर भी आपकी जो कि मर्यादाका पालन करनेवाले हैं - बुद्धि उसके विषय में विमुखता धारण करती है तत्र यही कहना होगा कि चैरके उत्पन्न करनेवाली इस राज्यलक्ष्मीको ह्रीं धिक्कार है ॥ ३६ ॥ मरनेका हेतु विष नहीं होता, अंधकार भी दृष्टि मार्गको रोकने में प्रवीण नहीं है, एवं घोर नरक मी अत्यंत दु:ख नहीं दे सकते; किंतु इन सबका कारण नीतिकारोंने स्त्रीको बताया -
SR No.010407
Book TitleMahavira Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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