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________________ तीसरा सर्ग । - [ ४१ बाद मृत्युको प्राप्त हुआ । 'यहांसे मरकर माहेंद्र स्वर्ग में इन्द्रके समान विभूतिका धारक देव हुआ ॥ ९४ ॥ वहां सान सागर प्रमाण काल तक इच्छानुसार स्वतंत्रता से रहा । पीछे निःश्रीक होकर वहांसे ऐसा गिरा जैसे वृक्षसे सुखा पत्ता गिर पड़ता है ॥९१॥ 1 " स्वस्तिमती नामकी नगरीमें सलंकायन नामका एक श्रीमान् ब्राह्मण रहता था । गुणोंकी मंदिर मन्दिरा नामकी उसकी प्रिया श्री ॥ ९६ ॥ इन दोनों के कोई संतान न थी । स्वर्गसे च्युत होकर वह देव इनके यहां भारद्वाज नामका पुत्र हुआ । जिस तरह विष्णुका गरुड़ आधार है उसी तरह यह भी दोनोंका आधार हुआ ॥ ९७ ॥ यहां भी सन्यासीके तपको तपकर, बहुत दिनमें अपने जीवनको पूर्ण कर उत्कृष्ट माहेन्द्र स्वर्ग में महनीय श्री - विभूति - ऋद्धिका धारक देव हुआ ॥ ९८ ॥ स्वर्गीय रमणियोंके मध्यम रीतिसे नृत्य करनेवाले विस्तृत नेत्र तथा कानों में पहरनेके कमल और कटाक्षोंसे इच्छानुसार ताड़ित होकर हर्षको प्राप्त होता हुआ ॥ ९९ ॥ सात सागर प्रमाण कालकी स्थितिवाली श्रीसे संयुक्त देवाङ्गनाओंके अनवरत रतका अनुभव किया ॥१००॥ कल्पवृक्षोंके कांपनेसे, मंदारवृक्षके पुप्पोंकी मालाके म्लान हो जानेसे -कुमला जानेसे, दृष्टिमें भ्रम और भी कारणोंसे नत्र उसका स्वर्गसे निर्वासन सूचित हो गया तब रो रो कर खूब विलाप करने लगा । शरीरकी कांति मंद हो गई । अपनी खेड खिन्न विरहिणी दृष्टिको इष्ट रमणिओंपर डालने लगा ॥१०१॥१०२॥ मेरा चित्त चिंताओंसे संतप्त हो रहा है, मैंने जो आशाका चक्र बांध रक्खा था उससे में निराश हो गया हूं, पड़नानेसे, इत्यादि • ·
SR No.010407
Book TitleMahavira Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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