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________________ तीसरा सर्ग। यति निराकुलतास चले गए ॥ ४० ॥ पुरुरवाने अहिंसादिक . व्रतोंकी बहुत दिन तक रक्षा की । पीछे वह मरकर सौधर्म स्वर्गमें दो सागरकी आयुसे उत्पन्न हुआ ॥ ४१ ।। वहां अणिमा आदिक ऋद्धिओंको प्राप्त कर तथा स्वर्गीय सुखान्तका पानकर जब पूर्व 'पुण्यका क्षय हो चुका तत्र वह वहांसे उतरा ॥ ४२ ॥ इसी भारतक्षेत्रमें नगरोंकी स्वामिनी विनीता नामकी एक नगरी है, जो ऐसी मालुम होती है मानों स्वयं इन्द्रने ही स्वर्गक सारमागको इकट्ठा करके फिर उससे उसे बनाया है ।। ४३॥ रात्रि मानो चंद्रमाके निरर्थक उदयकी हंसी किया करती है क्योंकि -रत्नोंक परकोटके प्रभाजालसे वहां अंधकारका आगमन रुक जाता है। ॥४४॥ वहाँके मकानोंके ऊपर शिखरों में लगी हुई नीलमणि जो चमकती हैं उनके किरण समूहसे उस नगरीमें सूर्य इस तरह ढक जाता है जैसे काले मेत्रोंसे ॥४५॥ वहां मदोन्मत्त भ्रपा युवाओंक नेत्रोंके साथ २ स्त्रिोंक निःश्वासको सुगंधि खिचकर उनके मुखकमलपर पड़ने लगते हैं ॥४६॥ जहांकी मणिओंकी बनी हुई मृमि, वहांकी रमणिऑके चपल नेत्रोंक प्रतिबिम्बके पड़नेस नील कमलोंसे - शोमित सरोवरकी तुलना करने लगती है ॥ ४७ ॥ महलोंक छन्नोंपर नो पद्मराग-माणिक लगे हुए हैं, उनके किरण मंडलसे वहां असमयमें ही आकाशमें संव्याक वादलोंका भ्रम होने लगता है. ॥४८॥ वहां मकानोंके ऊपर बैठे हुए मयूर मरक्तमणियोंकी-पन्नाओंकी कांतिसे इस तरह ढक जाते हैं नो पहले तो 'किसीकी मी दृष्टि में ही नहीं आते; परन्तु जब व मनोन शब्दबोलते हैं तत्र व्यक्त होते हैं. ॥१९॥ इस नगरीमें जगनके हितैषी समस्त गुणोंकि
SR No.010407
Book TitleMahavira Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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