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________________ . . : : अढारहवा सर्ग। [२६९ की ॥ १२ ॥ स्तुतिके स्वरूपको जाननेवाले और विनयसे नम्र हुए इन्द्रने प्राप्त कर लिया है समस्त अतिशयोंको जिसने ऐसे उस मिनेन्द्रकी स्तुति करना प्रारम्भ किया । जो वस्तुत: करने योग्य है उसकी स्तुति करनेकी अमिलापा किमको नहीं होती ? ॥ १३ ॥. - हे जिनेन्द्र ! मी बुद्धि आपकी स्तुतिके श्रेष्ठ विधानमें-स्तु स्पृहा-आकांक्षासे उद्युक्त तो होती है पर आपके गुणोंके गौरव (महत्व; दूसरे पक्षमें भारीपन) को देखकर स्खलित हो नती है । महान् भार इष्ट होनेपर मी श्रम उत्पन्न तो करता ही है ॥ १४ ॥ तो पी हे जिन ! मैं अपने हृदयमें रही हुई प्रचुर भक्तिके वशसे अत्यंत दुप्कर भी आपकी गुगन्तुतिको करूंगा। जो सच्चा अनुरागी है उसको लज्ना नहीं होती ॥ १५ ॥ हे वीर ! हानि रहित, दिनरात प्रकाशित रहनेवाला, खिलते हुए पअसमूहके द्वारा अमिनंदित, न्यूनता रहित आपका यश निरंतर अपूर्व कलाधरकी श्रीको धारण करता है ॥ १६ ॥ हे जिन ! 'आर तीनों लोकोंको यथास्थित-जो निस रूमें है उसको जी रूपसे निरंतर विना भ्रमण किये ही करणक्रम और आवरणसे चंजित देखते हैं । जो परमेश्वर है उसके गुण चितवनमें नहीं मा सकते ॥ ५७ ॥.प्राणवायुके द्वारा मेरुको कपादेनेवाले आपने यदि कोमल पुष्पके धनुषको धारण करनेवाले मनोभू-कामदेवको परास्त कर दिया इसमें आश्चर्य क्या हुआ ? जो बलवान् है वह चाहे जैसे विषमको अभिभूत कर देता है ।। ५८॥ आपको जगतम जो परमकारुणिक कहते हैं यह कैसे बन सकता है? क्योंकि भापका इंजित शासन अकट और अत्यंत दुःसंह हैं । गुप्तिरूप निबंधन
SR No.010407
Book TitleMahavira Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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